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४. सैद्धान्तिक चर्चा कर्णाटक वृत्तिके रचयिता केशववर्णी हैं। इन्होंने जीवकाण्ड प्रथम गाथाकी उत्थानिकामें षट्टखण्डागमके छह खण्डोंका नामोल्लेख अवश्य किया है। पर इससे ऐसा नहीं लगता कि उन्होंने षटखण्डागमके छहोंखण्डोंका धवला टीका सहित पूरा अध्ययन करके अपनी जीवतत्त्वदीपिका वृत्तिकी रचना की होगी । यही स्थिति संस्कृत वृत्तिके रचयिताके सम्बन्धमें भी कही जा सकती है । इतना अवश्य है कि गुरुपरम्परासे वाचना द्वारा उन्हें यथासम्भव सिद्धान्त विषयक जितना ज्ञान प्राप्त हुआ उसी आधारपर इन वृत्तियोंकी रचना की गई है । उसमें भी नेमिचन्द्र रचित वृत्ति कर्णाटक वृत्तिका अनुकरण मात्र है। इसे स्पष्ट करने के लिए यहाँ एक उदाहरण दे देना इष्ट समझते हैं
(१) जीवकाण्डका अर्थ है गुणस्थानों और मार्गणास्थानोंके आलम्बनसे जीवोंकी विविध अवस्थाओं और परिणामोंको सूचित करनेवाला ग्रन्थ । आ० नेमिचन्द्र सि० च० ने इसका संकलन मुख्यतया जीवस्थान, क्षुल्लकबन्ध, जीवस्थानचूलिका, वेदनाखण्ड और वर्गणाखण्डके आधारसे किया है।
यह तो हम जानते हैं कि गुणस्थानोंकी प्ररूपणा मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र और अविरति आदि जीवोंके परिणामोंके आधारसे ही की गई है। अब रहे मार्गणास्थान, सो इनमें भी भावमार्गणाएँ ही विवक्षित हैं । द्रव्यमार्गणाएं नहीं । इसके लिए क्षल्लकबन्ध तो प्रमाणस्वरूप है ही। साथ ही इसकी पुष्टि जीवस्थान सत्प्ररुषणाके इस वचनसे भी होती है
'इमानि' इत्यनेन भावमार्गणास्थानानि प्रत्यक्षीभूतानि निर्दिश्यन्त, नार्थमार्गणास्थानानि पृ० १३२ ।
सूत्रमें आये हुए ‘इमानि' इस पदसे प्रत्यक्षीभूत भावमार्गणास्थानोंका निर्देश किया है, द्रव्यमार्गणाओं का निर्देश नहीं किया है।
आगे गति पदकी व्याख्याके प्रसंगसे जो वचन आया है उससे भी उक्त तथ्यकी पुष्टि होती है।
इन तथ्योंसे स्पष्ट है कि सिद्धान्त ग्रन्थोंमें चौदह मार्गणाओंकी प्ररूपणा भावनिक्षेपके रूपमें ही हुई है, द्रव्यनिक्षेपके रूप में नहीं। गतिमार्गणाके विषयमें भी ऐसा ही समझना चाहिये। श्वेताम्बरकार्मिक ग्रन्थोंमें भी यही व्यवस्था स्वीकार की गई है। (२) प्रकृतमें गतिमार्गणाकी अपेक्षा विचार करनेपर गतिमार्गणा चार भेदोंमें विभाजित की गई है-नारक, तिर्यञ्चयोनिज, मनुष्य और देव । नारक सब नपुंसकवेदी होते हैं, इसलिए उनमें अवान्तर भेद लक्षित नहीं होते । देव स्त्रीवेद और पुरुषवेद इन दो वेदोंमें विभाजित किये गये हैं। तदनुसार उनके देव और देवी ये दो भेद किये गये है। तिर्यञ्चयोनिज तीन भेदोंमें विभाजित किये गये हैं। साथ ही उनमें पर्याप्त और अपर्याप्त तथा पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और तदितर तिर्यञ्च ये दो भेद और लक्षित होते है। मनुष्य तीन वेदोंमें विभाजित किये गये हैं। उनमेंसे पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी पर्याप्त मनुष्योंकी आगममें मनुष्य पर्याप्त संज्ञा उपलब्ध होती है। स्त्रीवेदी मनुष्योंकी मनुष्यनी संज्ञा उपलब्ध होती है तथा नपुंसकवेदी अपर्याप्त मनुष्योंकी मनुष्य अपर्याप्त संज्ञा उपलब्ध होती है। यह आगमिक व्यवस्था है। इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर गो० कर्मकाण्ड उदय प्रकरणमें मनुष्यनीके किस वेदका उदय होता है इसका निर्देश करते हुए लिखा है
मणुसिणिएत्थीसहिदा तित्थयराहारपुरिससंदणा।
पुण्णिदरेव अपुण्णे सगाणुगदिआउगं णेयं ॥३०॥ १. जीवकाण्ड पृ० ९ भा० ज्ञानपीठ प्रकाशन । २. जीवस्थान सत्प्ररूपणा १ जैन संस्कृति संरक्षक संध सोलापुर । ३. वही पृ० १३६-१३७ ।
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