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________________ कृष्टियोंमें द्रव्यके बटवारेकी प्ररूपणा ४१५ पुव्वादिम्हि अपुव्वा पुव्वादि अपुव्वपढमगे सेसे । दिज्जदि असंखभागेणूणं अहियं अणंतभागूणं ।।५०४।। पूर्वादौ अपूर्वा पूर्वादौ अपूर्वप्रथमके शेषे । दीयते असंख्यभागेनोनमधिकं अनंतभागोनं ।।५०४॥ सं० चं०-अपूर्व जो नवीन कृष्टि ताकी अंत कृष्टिनै पूर्वं जो पुरातन कृष्टि ताकी आदि कृष्टिविर्षे तो असंख्यातवें भाग घटता द्रव्य दीजिए है। बहुरि पूर्वं जो पुरातन कृष्टिकी अंत कृष्टि ता” अपूर्व जो नवीन कृष्टि ताकी प्रथम कृष्टिविर्षे असंख्यातवां भागमात्र अधिक द्रव्य दीजिए है । बहुरि अवशेष सर्व कृष्टिनिविर्षे पूर्व कृष्टितै उत्तर कृष्टिविषै द्रव्य अनंतवां भागमात्र घटता दीजिए है । सो कथन करिही आए हैं ।।५०४।। वारेक्कारमणंतं पुन्वादि अपुव्वआदि सेसं तु । तेवीस ऊंटकूडा दिज्जे दिस्से अणंतभागूणं ॥५०५।। द्वादशैकादशमनंतं पूर्वादि अपूर्वादि शेषं तु। त्रयोविंशतिरुष्ट्रकूटा देये दृश्ये अनंतभागोनम् ॥५०५॥ सं० चं०-तहाँ पुरातन प्रथम कृष्टि तौ बारह अर प्रथम संग्रहकी विना नवीन संग्रह कृष्टि ग्यारह अर अवशेष कृष्टि अनंत जाननी । ऐसें देय जो देने योग्य द्रव्य तिसविर्षे तेईस स्थाननिविर्षे उष्टकूट रचना हो है। जैसै ऊँटकी पीठि पछाड़ी तो ऊँची अर मध्यविर्षे नीची अर आगै ऊंची वा नीची हो है तैसैं इहां पहलै नवीन जघन्य कृष्टि विर्षे बहुत, बहुरि द्वितीयादि नवीन कृष्टिनिविर्षे क्रमतें घटता अर आणु पुरातन कृष्टिनिविर्षे अधस्तन शीर्षविशेष करि बधता अर अधस्तन कृष्टि अथवा उभय द्रव्य विशेषकरि घटता द्रव्य दीजिए है तातै देयमान द्रव्य विर्षे तेईस उष्ट्रकूट रचना हो है । बहुरि दृश्यमानविर्षे लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिकी नवीन जघन्य कष्टितै लगाय क्रोधकी ततीय संग्रह कृष्टिकी पुरातन अंत कृष्टिपर्यंत अनंतवें भागमात्र घटता क्रम लीएँ द्रव्य जानना । जात नवीन कृष्टिनिविषे तौ विवक्षित समयवि दीया द्रव्य सोई दृश्यमान है अर पुरातन कृष्टिनिविर्षे पूर्व समयनिविष दीया द्रव्य अर विवक्षित समयविषै दीया द्रव्य मिलाएँ दृश्यमान द्रव्य हो है सो नूतन कृष्टिनिविषै तौ अधस्तन कृष्टिका द्रव्य दीएं अर पुरातन कृष्टिनिविषै अधस्तन शीर्षका द्रव्य दीएं तौ सर्व कृष्टि पुरातन प्रथम कृष्टिके समान हो १. एदेण कमेंण विदियसमए णिक्खिवमाणगस्स पदेसग्गरस वारसस्स किदिवाणेसू असंखेज्जदिभागहोणं एक्कादससु किट्टिट्ठाणेसु असंखेज्जदिभागुत्तरं दिज्जमाणगस्स पदेसग्गस्स सेसेसु किट्टिट्ठाणेसु अणंतभागहीणं दिज्जमाणगस्स पदेसगस्स । क० चु० पृ० ८०३ । २. """""विदियसमए दिज्जमाणयस्स पदेसग्गस्स एसा उट्टकूडसेढी । जहा विदियसमए किट्टीसु पदेसग्गं तहा सव्विस्से किट्टीकरणद्धाए दिज्जमाणगस्स पदेसग्गस्स तेवीसमुट्टकूडाणि । क० चु० १० ८०३ । ३. जं पुण विदियसमए दीसदि किट्टीसु पदेसग्गं तं जहण्णियाए बहुअं, सेसासु सव्वासु अणंतरोपणिघाए अणंत्तभागहीणं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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