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कर्मकाण्ड - जीवकाण्डकी वृत्तिमें जिन भट्टारक धर्मचन्द्र का नाम आता है वे बलात्कारगण कारंजा पट्टके भट्टारक थे यह इस गणकी कारंजा शाखाके अध्ययनने ज्ञात हो जाता है ।
विशालकीर्ति नामके कई भट्टारक हुए हैं। यह सम्भावना की जाती है कि ये तत्वज्ञान तरंगिणी के रचयिता विशालकीर्ति ही होने चाहिये। किन्तु इनकी शुरू परम्पराका मेल बलात्कार गण सूरत शाखाने बैठता है न कि बलात्कार गण ईडरशाखाकी भट्टारक परम्परासे । अतः यह स्पष्ट है कि बलात्कार गण सूरत शाखाके जिन भट्टारक विशालकीर्तिके सहयोग कर्मकाण्डकी टीका रवी जानेका उल्लेख मिलता है उन्हीं के प्रशिष्यं नेमिचन्द्रने कर्णाटक वृत्तिके अनुसार गो० जीवकाण्ड कर्मकाण्डकी वृत्तिकी रचना की होगी। इतना सब होते हुए भी यह विवादास्पद ही है कि लब्धिसारकी वृत्तिकी रचना किसने की । जब तक कोई तथ्य सामने नहीं आते तब तक निर्विवादरूपसे नेमिचन्द्रको ही इसका रचयिता मानना उपयुक्त प्रतीत नहीं होता । इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इसकी रचना की शैली आदिको देखते हुए उसी काल के उक्त भट्टारकों के सम्मिलित सहयोगसे इसकी रचना की गई होनी चाहिये । यदि किसी एक भट्टारकका यह काम होता तो वह या अन्य कोई रचयिताके रूपमें उनके नामका उल्लेख अवश्य करते, जो कुछ भी हो, यह विषय है विचारणीय ही ।
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लब्धिसारकी संस्कृत टीकामें बीजगणितके रूपमें अर्धदृष्टिका उपयोग किया गया है। प्रकृतमें गाथा संख्याके अनुसार तत्सम्बन्धी कुछ संकेतोंका उल्लेख यहाँ कर देना उपयुक्त प्रतीत होता हैस्टोक अन्तर्मुहूर्त - २२
गाथा
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संख्यातगुणा,
पुनः सं. गु. अन्तर्मुहूर्त
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पुनः
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प्रभाण- प्र., फल-फ, इच्छा-इ अपसरणशलाका
२२२
१ २२२२ २
अन्तः कोटाकोटि सागरोपम सा० अंतः को, २ गुणहीन को. २ अधःप्रवृत्तकरणमेंसे प्रथय समयसम्बन्धी स्थितिविशेष सा. अं. को
सा० अं. ४
संख्यातगुणहीन,
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असंख्यात लोक
१. ती. महावीर और उनकी आचार्य परम्परा पू. ४१८
२. भट्टारक सम्प्रदाय पू. १८४-१८५ ।
३. जैनधर्मका प्राचीन इतिहास पृ. २६३ ।
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२ २२२ २ २२
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सा. अं. को २
४
सा० अं० को २
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