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यहाँ टिप्पण और प्रवचनसे वृत्तिकारको कौन विवक्षित है यह स्पष्ट ज्ञात नहीं हो सका।
नागपुरके सेनगण मन्दिरमें कर्मकाण्ड टीकाकी एक हस्तलिखित प्रति उपलब्ध है' । सम्भव है कि यह कर्मकाण्डकी मुद्रित टीकासे भिन्न होनी चाहिये, क्योंकि इसमें जो प्रशस्ति दी गई है उसमें और कर्मकाण्डकी मुद्रित टीकाकी प्रशस्तिमें अन्तर है। उक्त हस्तलिखित प्रतिमें जो प्रशस्ति दी गई है वह इस प्रकार है--
मूलसंघे महासाधुलक्ष्मीचन्द्रो यतीश्वरः । तस्य पादस्य वीरेन्दुविबुधा विश्ववेदिनः ।। तदन्वये दयांभोधिज्ञानभूषो गुणाकरः ।।
टीकां हि कर्णकाण्डस्य चक्रे सुमतिकीतियुक्॥३॥ इस प्रशस्तिमें मूलसंघ बलात्कार गणके शिष्य-प्रशिष्यके रूप में लक्ष्मीचन्द्र, वीरचन्द्र और ज्ञातभूषण इन भट्रारकोंके नाम देकर ज्ञानभूषणको भट्टारक सुमतिकीतिसे मिलकर कर्मकाण्डकी टीकाका रचयिता कहा गया है। जब कि मुद्रित कर्मकाण्डके अन्तमें पायी जानेवाली प्रशस्तिमें शिष्य-प्रशिष्यके रूपमें ज्ञानभूषण, प्रभाचन्द्र और नेमिचन्द्र ये तीन नाम देकर नेमिचन्द्रको गोम्मटसार जीवकाण्ड और कर्मकाण्डको वृत्तिका रचयिता बतलाया गया है । साथ ही उसमें यह भी कहा गया है कि कर्णाकदेशके राजा मलिलभूपालके अमुरोधवश विद्य मुनिचन्द्रसे नेमिचन्द्रने सिद्धान्तकी शिक्षा लेकर श्री धर्मचन्द्र और अभयचन्द्र भट्टारक तथा वर्णीलाला आदिके आग्रहसे गुजरातके चित्रकूट में जिनदास द्वारा निर्मापित जिनालयमें बैठकर उक्त वृत्तिकी रचना की। इसके निर्माणमें खण्डेलवाल कुलतिलक साह सांगा और साह सहेस भी निमित्त हुए। नेमिचन्द्र ने यह वत्ति विद्य विशालकीतिकी सहायतासे लिखी ।
ये दो प्रशस्तियाँ हैं। इनके आधारसे ये तथ्य फलित होते हैं
१. गोम्मटसार कर्मकाण्डकी दो टीकायें हैं-एक ज्ञानभषण भट्टारक द्वारा रचित और दूसरी उनके शिष्य नेमिचन्द्र द्वारा निर्मित ।
२. नेमिचन्द्रने सिद्धान्तकी शिक्षा कर्णाटकके विद्य मुनिचन्द्रसे ली । तथा अपनी वृत्तिकी रचना कारंजा बलात्करगण पट्टके भट्टारक त्रैविध विशालकीतिकी सहायतासे की।
३. नेमिचन्द्रकी इस बत्तिको संशोधित करके अभयचन्द्रने लिखा। ये भट्रारक ज्ञानभूषणके पूर्ववती भट्टारक वीरचन्द्र के सहाध्यायी तथा भट्टारक लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य थे। इतना अवश्य है कि बलत्कारगण सूरत पट्टकी भट्टारकपरम्परामें नेमिचन्द्रका उल्लेख दष्टिगोचर नहीं होता।
इतने विवेचनके बाद हमें जो महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है वह यह है कि गोम्मटसार जीवकाण्डकर्मकाण्डकी वृत्तिकी रचनामें कारंजा, सूरत और कर्णाटकके भट्टारकोंने सम्यग्यज्ञान प्रसारकी दृष्टिसे परस्पर सहयोग किया है। कर्मकाण्डकी जिस दूसरी टीकाका हम पूर्वमें उल्लेख कर आये है उसकी रचना में सुरत और कर्णाटकके भट्टारकोंका परस्पर सहयोग होना चाहिये, क्योंकि उसकी प्रशस्तिमें जिन सुमतिकोर्ति भट्टारकका उल्लेख किया गया है वे सम्भवतः कर्णाटक प्रदेशीय ही होने चाहिये। गोम्मटसार
१. मट्टारकसम्प्रदाय पृ. १८३ । २. भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था कलकत्ता। ३. भट्टारक सम्प्रदाय पृ० ३०१ ।
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