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________________ ३९० क्षेपणासार ऐसें इहां अविभागप्रतिच्छेदनिका प्रमाण कह्या है सो विवक्षित वर्गणाविषै जो एक परमारूप वर्ग तीहिविषे जेते अविभागप्रतिच्छेद पाइए ताकी अपेक्षा कथन कीया है । सर्व वर्गनिका समूहरूप वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदनिका प्रमाण यथा सम्भव जानना || ४७४॥ तादव्ववहारो पदेसगुणहाणिफड्ढयवहारो । पल्लस्स पढममूलं असंखगुणियककमा होंति ॥ ४७५ ।। तत्र द्रव्यावहारः प्रदेशगुणहानिस्पर्घकावहारः । पत्यस्य प्रथममूलं असंख्यगुणितक्रमा भवंति ॥ ४७५ ॥ स० चं०—अश्वकर्णकरणका प्रथम समयविषै अपूर्व स्पर्धक करनेका द्रव्य ग्रहण करने के अर्थ सर्व द्रव्यकौं जिस अपकर्षण भागहारका भाग दीया तातैं प्रदेश संबंधी एक गुणहानिविषै जो स्पर्धकनिका प्रमाण ताकौं अपूर्व स्पर्धकनिका प्रमाण ल्यावनेके अथि जाका भाग दीया सो असंख्यातगुणा है । तातैं पल्यका प्रथम वर्गमूल असंख्यातगुणा है । इहां ऐसा प्रयोजन जानना - जो अपकर्षण भागहारतें असंख्यातगुणा वा पल्यका प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवे भागमात्र जो भागहार ताका भाग अनुभागसम्बन्धी एक गुणहानिकी स्पर्धक शलाकाकौं दीए प्रथम समय त्रि की जे अपूर्व स्पर्धक तिनका प्रमाण आवे है || ४७५ || विशेष- इस गाथाका आशय यह है कि अपकर्षण- उत्कर्षणभागहारसे असंख्यातगुणे और पल्योपमके प्रथम वर्गमूल से असंख्यातगुणे हीन पल्योपमके असंख्यातवें भागसे एक प्रदेशगुणहानिस्थानान्तरप्रमाण स्पर्धकोंके भाजित करने पर जो लब्ध आवे उतने क्रोधादि संज्वलनोंके अपूर्व स्पर्धक होते हैं । खुलासा इस प्रकार है - अश्वकर्णकरणको करनेवाला जीव प्रथम समयमें जिस प्रदेशपुंजका अपकर्षण करता है उससे विवक्षित कर्मसे समस्त द्रव्यके भाजित करने पर अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारसंज्ञावाला जो भागहार प्राप्त होता है वह सबसे स्तोक है । इससे अपूर्व स्पर्धकों की अपेक्षा प्रदेशगुणहानिस्थानान्तरका जो भागहार है वह असंख्यातगुणा है । किन्तु यह पल्योपमके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिये पूर्वोक्त भागहारसे पल्योपमके प्रथम वर्गमूलको असंख्यातगुणा कहा है । अतः यह सिद्ध हुआ कि पल्योपमके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण भागहारके द्वारा एकप्रदेश गुणहानिस्थानान्तरप्रमाण स्पर्धकोंके भाजित करनेपर जो लब्ध आवे उतने क्रोधादि संज्वलनोंके अपूर्वं स्पर्धकों को प्रथम समय में रचता है । Jain Education International ताहे अपुन्वफड्ढयपुव्वसादीदणंतिममुदेदि । बंधो हु लताणंतिम भागो ति अपुव्वफड्ढयदो || ४७६|| १. पढमसमयअस्सकण्णकरणकारयस्स जं पदेसग्गमोकड्डिजदि तेण कम्मस्स अवहारकालो थोवो | अपुब्वफद्दयेहिं पदेसगुणहाणिद्वाणंतरस्स अवहारकालो असंखेज्जगुणो । पलिदोवमपढमवग्गमूलमसंखेज्जगुणं । क्र० चु० पू० ७९२ । २. पढमसमए चेव अपुव्वफद्दयाणि उदिण्णाणि च अणुदिण्णाणि च । अपुव्वफयाणं पि आदीदो अनंतभागो उदिष्णो च अणुदिण्णो च । उवरि अणता भागा अणुदिण्णा । बंधेण निव्वत्तिज्जति अपुव्वफद्दयं पढममादि काढूण जाव लदास माणफयाणमणंतभागो त्ति । क० चु० पृ० ७९३–७९४ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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