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________________ अश्वकर्णकरण के प्रथम समयसम्बन्धी प्ररूपणा २९१ तस्मिन् अपूर्वस्पर्धकपूर्वस्यादितोऽनंतिममुदेति । बंधो हि लतानंतिमभाग इति अपूर्वस्पर्धकतः ॥४७६॥ स० चं०-तिस अश्वकर्णकरणका प्रथम समयवि. उदय निषेकसम्बन्धी सर्व अपूर्व स्पर्धक अर पूर्व स्पर्धककी आदितै लगाय ताका अनन्तवां भाग उदय हो है । कैसे ? सो कहिए है अपूर्व स्पर्धकरूप परिणया है अनुभाग सत्त्व जाका ऐसा जो कर्म ताका असंख्यातवां भाग मात्र प्रदेशनिकौं अपकर्षण करि उदीरणा कर्ता जो जीव ताकै वर्तमान समयविष उदय आवने योग्य जो उदय निषेक तीहि वि सर्व ही अनुभागसत्व अपूर्ण स्पर्धकस्वरूप हैं। ता ते तौ सर्ग ही स्पर्धक उदीरणारूप हैं अर उदय निषेकौं ऊपरिके निषेक तिनके समान अनुभाग शक्ति धरै जे अपूर्व स्पर्धक ते उदय न हो हैं। ताते ते अनुदोर्णरूप हैं। ऐसें केई अपूर्ण स्पर्धकनिका उदय अर केई अपूर्व स्पर्धकनिका अनुदय जानना। बहुरि पूर्व स्पर्धकनिविष भी जे प्रथम स्थितिविष लता दारुरूप स्पर्धक हैं तिनविषै लता समान अनुभागका अनन्तवां भागमात्र स्पर्धक उदय हो है सो उदीरणारूप है। बहुरि उदय निषेकौं ऊपरिके निषेकनिके समान शक्ति लीएं लता भागका अनन्तवां भाग उदय न हो है सो अनुदीर्णरूप है । बहुरि ताके उपरिवर्ती लताभागका अनन्त बहुभागनिविषै बहुभाग अर समस्त दारु भाग है सो उदयकौं न प्राप्त हो है । ऐसें पूर्व स्पर्धककी आदि वर्गणारौं लगाय अनन्तवां भाग उदयरूप हो है । अन्य अनुदयरूप है । ऐसें अश्वकर्णकरणका प्रथम समयविषै उदय होनेका स्वरूप कह्या । बहुरि इस समयविष संज्वलनका बन्ध हो है। तहां पूर्वं लता भागके अनन्तवें भागमात्र बन्ध होता था सो अब तातें अनन्तवें भागमात्र अपूर्व स्पर्धक का प्रथम स्पर्धकर्मी लगाय अन्त स्पर्धक पर्यन्त अर पूर्व स्पर्धकनिका लता भागका अनन्तवां भाग पर्यन्त जे स्पर्धक तिनरूप होइ बंधरूप स्पर्धक परिणम हैं । इहां उदयरूप अनुभाग” बन्धरूप अनुभाग अनन्तगुणा घटता है । ऐसा जानना ॥४७६।। विशेष-सामान्य नियम यह है कि अश्वकर्णकरणके प्रथम समयमें कितने ही अपूर्व स्पर्धक उदीर्ण रहते हैं और कितने ही अपूर्व स्पर्धक अनुदीर्ण रहते हैं। तथा पूर्व स्पर्धकोंमें भी आदिसे लेकर अनन्तवें प्रमाण स्पर्धक उदीर्ण रहते हैं और अनुदीर्ण रहते हैं तथा इनसे ऊपर अनन्त बहुभागप्रमाण स्पर्धक अनुदीर्ण रहते हैं। विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है-संज्वलन कषायके अनन्तवें भागप्रमाण जो पूर्व स्पर्धक लता समान अनुभागको लिये हुए हैं तथा उनसे नीचे जो समस्त अपूर्व स्पर्धक हैं उनकी उस रूपसे उदय प्रवृत्ति होती है, उपरिम स्पर्धकस्वरूपसे उदय प्रवृत्ति नहीं होती। आशय यह है कि उसी समय अपू अपूर्व स्पर्धकरूपसे परिणमन करनेवाले अनुभागसत्कर्मसे प्रदेशपूंजके असंख्यातवें भागका अपकर्षण कर उदीरणा करनेवाले जीवके उदयस्थितिके भीतर सभी अपूर्व स्पर्धकरूपसे अनुभागसत्कर्म उपलब्ध होता है। इस प्रकार उपलब्ध होनेपर ही अपूर्व स्पर्धक उदोण होते हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपूर्व स्पर्धकरूपसे परिणत हुआ सत्कर्म पूरे रूपसे उदयको प्राप्त नहीं हुआ है, क्योंकि अपूर्व स्पर्धकसम्बन्धी सदृश धनवाले ( समान अनुभागवाले ) परमाणुओंके प्रत्येक स्पर्धकके प्रति स्थित होनेपर उनमेंसे कितने ही उदयको प्राप्त होते हैं और शेष तदवस्थ रहते हैं, इसीलिये यह स्वीकार किया गया है कि कितने हो अपूर्व स्पर्धक उदोण होते हैं और कितने ही अनुदीण रहते हैं। जो पूर्व स्पर्धक हैं वे भी आदिसे लेकर अनन्तवें भागप्रमाण उदीण और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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