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________________ ३७२ क्षपणासार रससंतं आगहिदं खंडेण समं तु माणगे कोहे । मायाए लोभे वि य अहियकमा होति बंधे वि' ॥४६४।। रससत्त्वमागृहीतं खंडेन समं तु मानके क्रोधे । मायायां लोभेऽपि च अधिकक्रमं भवति बंधेऽपि ।।४६४।। स० चं०-अपगतवेदो होइ जो प्रथम अनुभागकांडक आगृहीतं कहिए प्रारम्भ किया तिस सहित इस प्रथम अनुभागकांडकका घात होनेतें पहलै मानबिर्षे क्रोधवि मायाविषै लोभविषै अनुभागसत्त्व है सो अधिक क्रम लीएं है। एक गुणहानिविर्षे जेते स्पर्धक पाइए तिस प्रमाणकौं नानागुणहानिका प्रमाण करि गुणें मानके स्पर्धक हैं ते स्तोक हैं, तिनतै क्रोधके विशेष अधिक हैं, तिनतें मायाके विशेष अधिक हैं, तिनतें लोभके विशेष अधिक है। इहां अपने अपने स्पर्धाकनिका प्रमाण स्थापि अनन्तका भाग दोएं विशेषका प्रमाण आवै है सो यह विशेष भी अनन्त स्पर्धकमात्र है, याकरि अधिक अधिक जानने । जैसैं अंक संदृष्टि करि मानके स्पर्धक पांचसै वारा अर ताते क्रोध माया लौभके क्रमतें तीन तीन अधिक-कोध मान माया लोभ । बहुरि इस ५१५ ५१२ ५१८ ५२१ अश्वकर्णका प्रारम्भ समयविर्षे जो अनुभागबन्ध हो है तिसवि भी ऐसे ही अल्पबहुत्वका क्रम जानना। बहुरि यहु अनुभागका कथन अन्तदीपक समान है, तात याके पहिले गुणस्थाननिविषै जो अनुभागसत्त्व है तिस विर्षे भी ऐसे ही अल्पबहुत्व है ऐसें जानना ॥४६४॥ विशेष—यहाँ अश्वकर्णकरणका आरम्भ करनेवाले जीवने अनुभागकांडकका घात करनेके लिए जिस अनुभागसत्त्वको ग्रहण किया है वह मानसंज्वलनमें सबसे अल्प है। क्रोध, माया और लोभसंज्वलनमें उत्तरोत्तर विशेष अधिक है । यहाँ विशेष अधिकका प्रमाण भी अनन्त स्पर्धकस्वरूप है यह इस गाथाका तात्पर्य है । अनुभागबन्धमें भी इसी प्रकार जानना चाहिये । अर्थात् अनुभागबन्धमें जिस अनुभागको बाँधता है उसमें भी इसी विधिसे अल्पबहुत्व घटित होता है। रसखंडफडढयाओ कोहादीया हवंति अहियकमा । अवसेसफड्ढयाओ लोहादि अणतगुणियकमा ॥४६५।। रसखंडस्पर्धकानि क्रोधादिकानां भवंति अधिकक्रमाणि । अवशेषस्पर्धकानि लोभादेः अनंतगुणितक्रमाणि ।।४६५।। स० चं०-घात करनेकौं प्रथम अनुभागकांडकरूप ग्रहे जे स्पर्धक ते क्रोधके स्तोक १. अणुभागसंतकम्मं सह आगाइदेण माणे थोवं । कोहे विसेसाहियं । मायाए विसेसाहियं । लोभे विसेसाहियं । बंधो वि एवमेव । क० चु० पृ० ७८८ । २. अणुभागखंडयं पुण जमागाइदं तस्स अणुभागखण्डयस्स फद्दयाणि कोधे थोवाणि । माणे फद्दयाणि विसेसाहियाणि । मायाए फद्दयाणि विसेसाहियाणि । लोभे फद्दयाणि विसेसाहियाणि । आगाइदसेसाणि पुण फद्दयाणि लोभे थोवाणि । मायाए अणंतगुणाणि । माणे अणंतगुणाणि । कोधे अणंतगुणाणि । एसा परूपणा पढमसमयअस्सकरणकारयस्स । क० चु० पृ० ७८८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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