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________________ अश्वकर्णकरणके नामान्तरोंका खुलासा ३७१ अश्वकर्ण संज्ञा कहिए। बहुरि जैसे ही वाकै (हिंडोलेके) रज्जु बँधे है सो रज्जुके वीचिका प्रदेश आदितें अन्तपर्यंत क्रमतै घटता हो है तैसै पूर्ववत् क्रोध लोभपर्यन्त अनुभाग घटता हो है तातै आंदोलनकरण संज्ञा कहिए है ।।४६२॥ विशेष-जैसे घोड़ेका कान मध्यसे लेकर अग्र भागतक उत्तरोत्तर हीयमानरूपसे दिखलाई देता है उसी प्रकार क्रोधसंज्वलनसे लेकर लोभसंज्वलन तक इनके अनुभाग स्पर्धकोंकी उत्तरोत्तर अनन्तगुणे हीनरूपसे रचना है, इसलिए रचना की अपेक्षा इनकी अश्वकर्ण संज्ञा है। अथवा जैसे हिंडोलेकी रस्सियाँ ऊपरसे नीचेतक अन्तरालमें त्रिकोणरूपसे कर्णके आकाररूपसे दिखाई देती हैं उसी प्रकार क्रोधादि संज्वलनोंके अनुभागका विन्यास क्रमसे हीनमान दिखलाई देता है, इसलिए अश्वकर्णकरणकी आंदोलकरण संज्ञा है। इसी प्रकार इसकी अपवर्तन-उद्वर्तन संज्ञा जाननी चाहिये, क्योंकि क्रोधादि संज्वलनोंके अनुभागकी रचना हानि-वृद्धिरूपसे अवस्थित है। जिस समय यह जीव पुरुषवेदके प्राचीन सत्कर्मके साथ छह नोकषायोंका क्षय कर प्रथम समयवर्ती अपगतवेदी होता है उसी समयसे यह अश्वकर्णकारक होता है यह उक्त कथनका आशय है । ताहे संजलणाणं ठिदिसंत संखवस्सयसहस्सं । अंतोमुहुत्तहीणो सोलसवस्साणि ठिदिबंधो' ।।४६३।। तत्र संज्वलनानां स्थितिसत्त्वं संख्यवर्षसहस्रम् । अंतमुहूर्तहीनः षोडशवर्षाणि स्थितिबन्धः ॥४६३।। स० चं-तहां अश्वकर्णका प्रारम्भ समयविर्षे संज्वलनचतुष्कका स्थितिसत्त्व संख्यात हजारवर्षमात्र है। बहुरि स्थितिबन्ध अन्तमुहूर्त घाटि सोलह वर्षमात्र है। एक स्थितिबन्धापसरणकरि पूर्व स्थितिबन्धतै अन्तमुहूर्तहीन स्थितिबन्ध इहां भया और कर्मनिके बन्धसत्त्वका आलाप पूर्ववत् इहां भी कहना ॥४६३॥ विशेष—यद्यपि पहले ही सात नोकषायोंकी क्षपणा करते समय सर्वत्र संज्वलनचतुष्कका स्थितिसत्त्व संख्यात हजार वर्ष था, किन्तु इस अवस्थामें संख्यात हजार स्थितिकांडकोंके द्वारा और भी कम होकर पूर्वोक्त स्थितिसत्त्वसे संख्यातगुणा हीन होकर वह संख्यात हजार वर्षप्रमाण शेष रहता है। इसी प्रकार स्थितिबन्ध भी जो पहले संख्यात वर्ष था वह छह नोकषायोंकी क्षपणा के समय पूरा सालह वर्ष होकर अब अन्तमुहूर्त कम सोलह वर्षप्रमाण शेष रहता है, क्योंकि यहाँसे लेकर स्थितिबन्धापसरणका प्रमाण अन्तमुहूर्त हो जाता है । इत । अवश्य है कि यहाँ पर तीन घातिकर्मोका स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व संख्यात हजार वर्षप्रमाण होता है तथा नाम, गोत्र और वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्षप्रमाण और स्थितिसत्त्व असंख्यात हजार वर्षप्रमाण होता है। १. छसु कम्मेसु संछुद्धे सु से काले पढमसमयअवेदो। ताधे चेव पढमसमय अस्सकण्णकारगो । ताधे द्विदिसंत कम्म संजलणाणं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । ठिदिबंधो सोलस वस्साणि अंतोमहतुणाणि । क० चु० पृ० ७७९-७८० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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