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________________ ३७० क्षपणासार प्रथम स्थितिविषै असंख्यात समयप्रबद्धमात्र उदयावली कहिए उच्छिष्टावलीके निषेक पुरुषवेदका सत्त्वविषै अवशेष रहैं, अन्य सर्व संख्यात हजार वर्षमात्र स्थिति लीएं पुरुषवेदका पुरातन सत्त्व था सो संज्वलन क्रोधविषै संक्रमणरूप कीया। इहां द्वितीय स्थितिविषै समय घाटि दोय आवलीमात्र नवक समयप्रबद्ध कैसै अवशेष रहैं ? सो कहिए है ___ नवीन बन्ध्या समयप्रबद्धकौं नवक समयप्रबद्ध कहिए सो क्षपणा काल बन्धे पोछ आवली पर्यंत जो बन्धावली तिसविषै तौ क्षपावना नाही, पीछे समय समयविषै एक-एक फालिकरि आवलीविर्षे एक एक समयप्रबद्धकौं खिपावै है, तातै पुरुषवेदकी प्रथम स्थितिविर्षे बन्धावली क्षपणावलीउच्छिष्टावली ऐसे तीन आवली अवशेष रहैं, बन्धावलीका प्रथम समयविर्षे जो समयप्रबद्ध बन्ध्या ताकौं बन्धावली गमाइ क्षपणावलीविर्षे एक एक फालिकरि सर्व क्षपाया अर बंधावलीका द्वितीय तृतीयादि समयनिविर्षे जे समयप्रबद्ध बंधे तिनको क्रमतें एक दोय तीन आदि फालि अवशेष राखि क्षपणावलीविर्षे तिनकौं खिपाए । ऐसें बंधावलीका अंत समयविष बंध्या समयप्रबद्धको क्षपणावलीका अंत समयविर्ष एक ही फालि खिपाई। समय घाटि आवलीमात्र फालि अवशेष रही । बहुरि क्षपणावलीके प्रथमादि समयनिविष बन्धे समयप्रबद्ध तिनकी एक हू फालि न खिपाई । बहुरि उच्छिष्टावलीविषै बंध है ही नाहीं । ऐसें इहां एक देशकौं सर्व कहिए इस न्यायपै अवशेष रही फालिनिकौं समयप्रबद्ध संज्ञा कहनेकरि बन्धावलीविर्षे बन्धे ऐसे एक घाटि आवलीमात्र समयप्रबद्ध अर क्षपणावलीविषै बन्धे सम्पुर्ण आवलीमात्र समयप्रबद्ध मिलि समय घाटि दोय आवलीमात्र नवक समयप्रबद्ध अवशेष रहैं हैं। सो अपगतवेद होइ उच्छिष्टावलीका प्रथम समयतें लगाय एक-एक समयविष एक-एक समयप्रबद्धकौं संज्वलन क्रोधरूप परिणमाइ समय घाटि दोय आवली कालविष इन नवक समयप्रबद्धनिकौं भी नाश करै है। अब सवेद अनिबृत्तिकरणके अनंतरि अपगतवेदी होइ अश्वकर्ण क्रिया सहित अपूर्व स्पर्धककरणका प्रारम्भ करै है। तहां यातै पीछे अवशेष रह्या जो संज्वलनचतुष्कका सत्त्व तिसविर्ष स्थिति-अनुभाग कांडककी प्रवृत्ति जाननी ॥४६१।। अब अश्वकर्णकरणका स्वरूप कहिये है से काले ओवट्टणुवट्टण अस्सकण्ण आदोलं । करणं तियसण्णगयं संजलणरसेसु वट्टिहिदि ॥४६२।। स्वे काले अपवर्तनोद्वर्तनं अश्वकर्णमादोलं । करणं त्रिकसंज्ञागतं संज्वलनरसेषु वर्तयति ॥४६२।। स० चं० --अपने कालविर्षे अपवर्तनोद्वर्तनकरण १ अश्वकर्णकरण १ आदोलकरण १ ऐसैं तीन संज्ञाकौं प्राप्त किया है सो संज्वलनचतुष्कका अनुभागविषै प्राप्त हो है। तहां इहां आरंभ्या जो प्रथम अनुभागकांडक ताका घात भए पीछे अवशेष अनुभाग क्रोधर्मी लगाय लोभपर्यन्त अनन्तगुणा घटता वा लोभतें लगाय क्रोधपर्यन्त अनन्तगुणा बँधता हो है। तातैं अपवर्तनोद्वर्तनकरण संज्ञा कहिए। बहुरि जैसे घोडेका कान मध्य प्रदेशतें आदि पर्यन्त क्रमतें घटता हो है तैसें प्रथम अनुभागकांडकका घात भए पीछे क्रोध आदि लोभ पर्यन्तका क्रमतें अनुभाग घटता हो है, तातें १. अस्सकण्णकरणे त्ति वा आदोलकरणे त्ति वा ओवट्टणक्वट्टणकरणे त्ति वा तिण्णि णामाणि अस्सकण्णकरणस्स । क० चु० पृ० ७८७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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