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________________ छह नोकषायोंकी क्षपणाका निर्देश ३६९ विषै प्राप्त करना सो आगाल कहिए। प्रथम स्थितिविष तिष्ठते परमाणूनिकौं उत्कर्षण वशतें द्वितीय स्थितिविष प्राप्त करना सो प्रत्यागाल कहिए। बहुरि प्रत्यावली जो द्वितीयावलीत उदीरणा वतॆ है। प्रत्यावलोके निषेकनिका द्रव्य उदयावलीविषै दीजिए है। बहरि एक समय अधिक प्रत्यावली अवशेष रहैं जघन्य स्थितिकी उदीरणा हो है, जातें प्रत्यावलीका प्रथम एक निषेककी उदीरणा हो है उदयावलीविषै ताकौं प्राप्त कीजिए है। यहरि तीहिं समयविषै वेद सहितपनाका अन्त समयविष हो है, जानै उच्छिष्टावली है नाम जाका ऐसी जो प्रत्यावली ताके निषेकनिका उदय न हो है ॥४५९॥ अंतरकदपढमादो कोहे छण्णोकसाययं छुहदि । पुरिसस्स चरिमसमए पुरिस वि एदेण सव्वयं छुहदि' ॥४६०॥ अंतरकृतप्रथमात् क्रोधे षण्णोकषायकं संकामति । पुरुषस्य चरमसमये पुरुषमपि एतेन सर्व संक्रामति ॥४६०॥ स० चं-अंतरकरण करनेके अनन्तरवर्ती प्रथम समयतें लगाय संक्रमण होता था सो पुरुषवेदके उदय कालका अन्त समयविषै छह नोकषायनिका सर्व सत्त्वकौं संज्वलन क्रोधविषै संक्रमण कर है। तहां अन्त समयविषै द्वितीय स्थितिविषै प्राप्त संख्यात हजार वर्षमात्र स्थिति सत्वरूप अन्त फालि ताकौं सर्व संक्रसणते संज्वलन क्रोधविष निक्षेपणकरि तिन छह नोकषायनिकी सत्ता नाश करै है । बहुरि तिस ही समयविषै पुरुषवेद भी सर्व संज्वलन क्रोधविषै निक्षेपण करै है ॥४६०॥ विशेष—यहाँ कहा गया है कि अन्तरकरण करनेके बाद प्रथम समयसे लेकर छह नोकषायोंका क्रोधसंज्वलनमें संक्रम होता है आदि। किन्त चणिसत्रोंमें इसी बातको अन्तरकरण करनेके दूसरे समयसे छह नोकषायोंका क्रोध संज्वलनमें संक्रम होता है यह कहा गर गया है। सो दोनों कथनों का तात्पर्य एक ही है। कारण कि अनुदयरूप प्रकृतियों की उदयावलिका प्रभाण स्तिबुक संक्रमके कारण एक समय कम होता जाता है। इसलिये प्रतिसमय निषेक स्थिति एक कम होती जानेसे दोनों कथनों की एकरूपमें संगति बैठ जाती है । किछू अवशेष रहै है सो कहिए है समऊण दोण्णि आवलिपमाणसमयप्पबद्धणवबंधो । विदिये ठिदिये अस्थि हु पुरिसस्सुदयावली च तदा ॥४६१॥ समयोनद्वयावलिप्रमाणसमयप्रबद्धनवबंधः । द्वितीयस्यां स्थितौ अस्ति हि पुरुषस्योदयावली च तदा ॥४६१॥ स० चं-तहां द्वितीय स्थितिविषै तो समय घाटि दोय आवलीमात्र नवक समयप्रबद्ध अर १. अंतरादो दुसमयकदादो पाए छण्णोकसाए कोधे संछुहदि, ण अण्णम्हि कम्हि वि ।..........तदो चरिमसमयसवेदो जादो । ताधे छण्णोकसाया संछद्धा। क० च०प० ७५५ । २. पुरिसवेदस्स जाओ दो आवलियाओ समयूणाओ एत्तिगा समयपबद्धा विदियठिदीए अत्थि, उदयद्विदी च अस्थि । सेसं पुरिसवेदस्स संतकम्मं सव्वं संछुद्धं । क० चु० पृ० १५५ । ४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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