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________________ । २९ ] उत्कृष्ट इन्द्रनन्दि गुरुके पास समस्त सिद्धान्तको सुनकर श्री कनकनन्दि गुरुने सत्त्वस्थानकी प्ररूपणा की ॥३९६॥ अथवा यह भी हो सकता है कि नेमिचन्द्रने प्रमुख रूप में अभयनन्दिसे वाचना लो होगी और विशेष हृदयंगम करनेके अभिप्रायसे इन्द्रनन्दिको माध्यम बनाकर भी सिद्धान्त ग्रन्थोंका स्वाध्ताय किया होगा । सत्त्वस्थानको प्ररूपणाका सम्बन्ध कनकनन्दिसे आता है और इस बातको ध्यानमें रखकर ही उन्होंने कनकनन्दिको भी गुरु कहना मान्य रखा होगा। पर अभी यह बात विचाराय है कि सत्त्वस्थानको ग्रन्थ रूप किसने दिया, क्योंकि जहाँ एक ओर नेमिचन्द्र आचार्य सत्त्वस्थानकी प्ररूपणाका श्रेय कनकनन्दिको देते हैं वहीं दूसरी ओर वे यह भी कहते हैं कि इस प्रकार विस्तारपूर्वक सत्त्वस्थानका मैंने सम्यक् वर्णन किया । जो इसे पढ़ता है, सुनता है और अभ्यासकर हृदयंगम करता है वह मोक्षसुखका भोक्ता होता है। यथा एवं सत्तट्ठाणं सवित्थरं वण्णियं मए सम्म । जो पढइ सुणइ भावइ सो पावइ णिव्वुदि सोक्खं ॥३९५॥ सत्त्वस्थानकी स्वतन्त्र प्रतियाँ आराके जैन सिद्धान्त भवनमें उपलब्ध हैं। उनको सावधानीसे देखकर और उनका गो० कर्मकाण्डके सत्त्वस्थान प्रकरणसे मिलान करके ही यह निश्चय किया जा सकता है कि इस प्रकरणके संकलन में किसका कितना योगदान है। कनकनन्दिके गरु इन्प्रनन्दि थे यह गो० कर्मकाण्डकी गाथा ३९६से ज्ञात होता है। उसकी संस्कत टीकामें इन्द्रनन्दिको सूरि कहनेके साथ भट्टारक भी कहा गया है । यह संस्कृत टीका केशववर्णीकृत कर्णाटक वृत्तिका लगभग रूपान्तर है, इसलिए बहुत सम्भव है कि अपनी कर्णाटक वृत्तिमें केशववर्णीने भी इन्द्रनन्दिको भट्टारक समझ बूझकर लिपिबद्ध किया होगा । हो सकता है कि १०-११ वीं शताब्धिमें नग्न भट्टारकोंकी परम्परा प्रचलित हो गई हो । जो कुछ भी हो, यह विचारणीय अवश्य है। इससे कई तथ्योंपर बहुत कुछ प्रकाश पड़ना सम्भव है । ३९६ गाथाकी संस्कृत टीका इस प्रकार है सूरिमतल्लिकाश्रीमदिन्द्रनन्दिभट्टारकपात्रे सकलसिद्धान्तं श्रुत्वा श्रीकनकनन्दिसिद्धान्तचक्रवर्तिभिः सत्त्वस्थानं सम्यक् प्ररूपितम् । इस प्रकार पूर्वोक्त विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती उसी समयके आचार्य हैं जब अभयनन्दि, वीरनन्दि, इन्द्रनन्दि और कनकनन्दि आदि मनीषी इस भूमण्डलको अपनी उपस्थितिसे अलंकृत कर रहे थे। इन सब आचार्योंका काल विक्रमकी ११वीं शताब्दि है, अतः इस हिसाबसे इन्हें भी विक्रमकी ११वीं शताब्दिका समझना चाहिये। इस विषयमें विशेष स्पष्टीकरण अन्यत्र से जानना चाहिये। अब देखना यह है कि उन्होंने किस स्थान पर बैठकर सिद्धान्तादि ग्रन्थोंकी रचना कर करणानुयोगकी श्रीवृद्धिमें चार चाँद लगाये हैं। उन्होंने स्वयं तो इस सम्बन्धमें कुछ लिखा नहीं। परन्तु कर्मकाण्डके अन्तमें जहाँ भगवान् बाहुबलिके उतुंग जिन बिम्बका सम्मानके साथ उल्लेख किया गया है वहीं श्री वीरमार्तण्ड चामुण्डरायद्वारा निर्मापित श्री जिनमन्दिरका भी उल्लेख किया है। इससे प्रतीत होता है कि उन्होंने अपनी गोम्मटसार, लब्धिसार आदि ग्रन्थोंकी रचनाके लिए यही स्थान उपयुक्त समझा होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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