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सिद्धान्त चकवर्तीने कब और किस स्थान पर बैठकर इस ग्रन्थकी रचना की इसपर आगे संक्षेप- प्रकाश डाला जाता है। साथ ही यह भी देखना है कि इनके दीक्षागरु और शिक्षागरु कौन थे? नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीकी तीन रचनाएँ प्रसिद्ध है-गोम्मटसार जीवकाण्ड कर्मकाण्ड, लहिसार और त्रिलोकसार । क्षपणासार स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है, लब्धिसारका ही एक अंग है, ये तीनों रचनाएँ ऐसी हैं जिनसे उनकी बहज्ञताको समझने में सहायता मिलती है, उनमेसे यहाँ हम लब्धिसारको ही लेते है। उसके अन्त में प्रशस्तिके रूप में ये दो गाथाएँ आई हैं
वीरिंदणंदिवच्छेणप्पसुदेणभयणंदिसिस्सेण । दंसण-चरित्तल-द्वी सुसूइया णेमिचंदेण ॥६५२।। जस्स य पायपसाएणणंतसंसारजलहिमत्तिण्णो।
वीरिंदणंदिवच्छो णमामि तं अभयनंदिगुरुं ॥६५३॥ आशय यह है कि वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिके वत्स, अल्पश्रुतज्ञानी तथा अभयनन्दिके शिष्य नेमिचन्द्रने दर्शन-चारित्र लब्धिको भले प्रकार निबद्ध किबा है ॥६५२॥ जिसके चरणप्रसादसे अनन्त संसार समुद्रको पार किया उन अभयनन्दिगुरुको मैं वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिका वत्स नमस्कार करता हूँ ॥६५३॥
इनमेंसे प्रथम गाथासे तो यही स्पष्ट होता है कि नेमिचन्द्र आचार्य वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिसे छोटे थे तथा अभयनन्दिके शिष्य थे। कैसे शिष्य थे इसका पता दूसरी गाथाके पूर्वार्धसे लगता है । नेमिचन्द्रने अभयनन्दिको संसार समद्रसे पार करनेवाला कहा है। इससे मालूम पडता है कि नेमिचन्द्रने अभयनन्दिसे दीक्षा ली थी। तथा दूसरी गाथामें पुनः इस बातको दुहराया गया है कि नेमिचन्द्र वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिसे छोटे थे। मेरी समझमें नेमिचन्द्रने स्वयंको वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिका बत्स कहा है उसका भी तात्पर्य यही है।
अब देखना यह है कि उन्होंने दोनों मल सिद्धान्त ग्रन्थोंकी वाचना किससे ली थी, क्योंकि उन्होंने दोनों सिद्धान्त ग्रन्थोंके आधारसे यथासम्भव गोम्मटसार जीवकाण्ड-कर्मकाण्ड और लब्धिसारकी रचना की है। लब्धिसारसे तो इसपर विशेष प्रकाश नहीं पड़ता। हाँ गो० कर्मकाण्डसे इस विषयका समाधान हो जाता है । वहाँ लिखा है
जत्थ वरनेमिचंदो महणेण विणा सुणिम्मलो जादो।
सो अभणणंदिणिम्मलसुश्रीवही हरउ पाणमलं ॥४०८।। जिसका आश्रय पाकर उत्कृष्ट नेमिचन्द्र बिना मथन किये अत्यन्त निर्मल हो गये वह अभयनन्दिद्वारा प्ररूपित निर्मल श्रुतरूपी सागर हमारा पापमल हरो ॥४०८।।
यद्यवि कर्मकाण्ड गाथा ७८५ में इन्द्रनन्दिको श्रुतसागरमें पारंगत कहनेके साथ गुरु भी कहा गया है । पर मेरी समझमें यहाँ पर गुरु शब्द बड़प्पनके अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। दक्षिणमें ऐसी प्रथा भी रही है कि जो सहपाठी होने के साथ अपनेसे बड़ा हो उसे गुरु शब्द द्वारा सम्बोधित करनेकी परिपाटी रही है। इस बातका समर्थन गो० कर्मकाण्डकी इस गाथासे होता है
वरइंदणंदिगुरुणा पासे सोऊण सयलसिद्धतं । सिरिकणयणंदिगुरुणो सत्तट्ठाणं समुठ्ठि ॥३९६॥
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