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________________ [ २७ अद्धापरिमाण अधिकारका अलगसे उल्लेख करते हैं। इससे मालूम पड़ता है कि 'आवलिय अणाहारे इत्यादि छ गाथाओंको भी स्वयं गुणधर आचार्यने निबद्ध किया है। अब रही संक्रमणसम्बन्धी ३५ गाथाएं सो उनपर तो चूर्णिसूत्र है ही। इससे भी ऐसा ही ज्ञात होता है कि इन ५३ गाथाओंको निबद्ध करनेवाले आचार्य गुणधर ही है। यद्यपि आचार्य वीरसेनने अद्धापरिमाण अधिकारको सब अधिकारों में समान होनेसे स्वतन्त्र अधिकार माननेका निषेध किया है, पर उससे उक्त तथ्यके फलित करने में कोई बाधा नहीं आती। यद्यपि कषायप्राभतकी समाप्ति १५ अधिकारोंकी समाप्तिके बाद चुलिका नामक अनयोगद्धारके समाप्त होने पर ही होती है। फिर भी यतिवषभ आचार्यने अपने चणिसूत्रों द्वारा पश्चिम स्कन्ध नामक अधिकारको रचना अलगसे की है। इस पर जयधवलकारने जो शंका-समाधान किया है उसका अनुवाद अविकल रूपसे हम यहाँ दे रहे हैं शंका-महाकर्मप्रकृतिप्राभुतके २४ अनुयोगद्धारोंसे सम्बन्ध रखनेवाले इस पश्चिम स्कन्ध अधिकारकी इस कषायप्राभृतमें किसलिए प्ररूपणा की जा रही है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि दोनों स्थलोंपर उसे स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं आती । यथा महाकम्यपयडिपाहुडस्स चउवीसाणियोगद्दारेसु पडिबद्धो एसो पच्छिमक्खंधाहियारो कधमेत्थ कसायपाहुडे परूविज्रदि त्ति णासंका कायव्वा, उहयत्थ वि तस्स पडिबद्धत्तब्भुवगमे बाहाणुवलंभादो। यह चणिसूत्रोंका सामान्य स्वरूप है। जयधवला टीका इसमें जहाँ कषायप्राभृतके प्रत्येक गाथा सूत्रका अलगसे विवेचन उपलल्ध होता है वहीं प्रत्येक गाथा सूत्र पर जितने चूर्णिसूत्र आये हैं उनकी भी स्वतन्त्ररूपसे व्याख्या की गई है। इतना अवश्य है कि अधिकतर अधिकारोंमें पहले उस उस अधिकार सम्बन्धी सब गाथा सूत्र दे दिये गये हैं। उसके बाद उनपर जितने चूणि सूत्रोंकी रचना हुई है वे भी व्याख्याके साथ दिये गये हैं। इसके लिए देखो संक्रम अधिकार, वेदक अधिकार, उपयोग आधकार आदि। एक चारित्रमोहक्षपणा अधिकार ऐसा अवश्य है जिसमें प्रत्येक गाथासूत्रपर चूर्णिसूत्र और जयधवला टीका अलग-अलग दी गई हैं। सम्भवतः इस प्रकारकी व्यवस्था चुणिसूत्रकार यतिवृषभ आचार्य द्वारा ही की गई प्रतीत होती है। लब्धिसार और उसके कर्ता आचार्य नेमिचन्द्र नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने लब्धिसारकी रचनामें उक्त तीनों सिद्धान्त ग्रन्थोंका समानरूपसे उपयोग किया है। इसमें दर्शनमोह उपशमना अधिकारसे लेकर अन्त तकके सभी अधिकारोंका विषय सम्मलित किया गया है। उक्त जयघवला टीका ६०००० श्लोक प्रमाण मानी जाती है। इतने महा परिमाणवाले ग्रन्थके एक तिहाई भागको ६५३ गाथाओंमें संकलित कर देना यह कोई साधारण काम नहीं है । उल्लेखनीय बात यह है कि ऐसा करते हुए कोई विषय छूटने भी नहीं पाया है। साथ ही जिस विषयका जयधवला टीकामें विशेष स्पष्टीकरण किया गया है उसे भी लब्धिसारमें निरूपित कर दिया गया है। लब्धिसारमें ऐसी अधिकतर गाथाएँ हैं जिन्हें समझने के लिए टीकाकी सहायता लेनी पड़ती है। नेमिचन्द्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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