________________
[२६]
वस्तुस्थिति यह है कि महाकम्मपयडिपाहुडमें आठों कर्मों को माध्यम बना कर प्ररूपणा हुई है और पेज्जदोसपाहुड में मात्र मोहनीय कर्मको माध्यम बना कर प्ररूपणा हुई है । इसलिए यथासम्भव इन दोनों आगमोंकी विषयवस्तुका मूलके अनुसार होना स्वाभाविक है। स्पष्ट है कि आचार्य गुणधरने जो संक्रम, उदयउदीरणाकी स्वतन्त्र प्ररूपणा की है वह महाकम्मपयडिके आधारसे न करके मात्र पेज्जदोसपाहुडके आधार से ही की है । यह कैसे माना जाय कि पेज्जदोसदाहुडमें इन अधिकारों की प्ररूपणा नहीं की गई, अतः उन्होंने इसे महाकम्पपिडसे लिया है। यह मात्र कल्पना ही है। रहा अल्पवहुत्व अधिकार सो वह दोनों में समान है । अन्तर केवल इतना है कि महाकम्मपयडिपाहुडमें आठ कर्मोको आश्रय बना कर उसकी प्ररूपणा हुई है और पेज्जदोसपाहुडमें मात्र मोहनीय कर्मको आश्रय बना कर उसकी प्ररूपणा हुई है । इसलिये कषाय प्राभृत में भी इसकी प्ररूपणा पेज्जदोसपाहुडसे ही की गई है ऐसा स्वीकार करना हो तर्कसंगत प्रतीत होता है ।
एक बात यह भी समझनी चाहिये कि मूल आगयको संक्षिप्तकर विषय विभाग के क्रमसे पुस्तकारूढ़ करते समय यह पुस्तकारूढ़ करनेवाले आचार्य की इच्छापर निर्भर रहा हैं कि वह किसे प्राथमिकता दे । देखो कषायप्राभृत में पहले मोहनीयकर्मके सत्त्वकी प्ररूपणा की गई, बन्धकी नहीं । जब कि सत्त्वकी प्ररूपणा वन्धके बाद ही होनी चाहिये थी ऐस्म कहा जा सकता है। यह भी एक तर्क ही है । इससे यथार्थतापर कोई प्रकाश नहीं पड़ता । मेरी रायमें धनला और जयधवलामें जो श्रुतावतारका इतिहास दिया है उसे ही प्रामाणिक माना जाना चाहिये ।' अपनी बुद्धिसे ऐसे सूक्ष्म विषयपर कुछ भी टीका-टिप्पणी करना आगमानुसारी तर्क संगत प्रतीत नहीं होना ।
चूर्णिसूत्र
आचार्य यतिवृषभने कषायप्राभृत की सूत्रगाथाओंपर चूर्णि सूत्रोंकी रचना की है । यद्यपि आचार्य पन्द्रह अधिकारोंको १८० गाथाओंमें निबद्ध करने की प्रतिज्ञा की है । किन्तु इसमें कुल गाथाएँ २३३ हैं । इनके अतिरिक्त चूलिकामें दो गाथाएं और है । इन सबको जयधवलाटीकाकारने गाथा सूत्र कहा है तथा २३३ सूत्रगाथाओं में से ५३ गायाकी रचना भी स्वयं गुणधर आचार्यने ही की है यह भी स्पष्ट
3
किया है ।
१२ सम्बन्ध गाथाओंके तथा ३५ संक्रामण गाथाओंके साथ चूर्णिसूत्रों पर दृष्टिपात करनेसे भी यह स्पष्ट हो जाता है कि ये गाथाएँ गुणधर आचार्य द्वारा ही निबद्ध होनी चाहिये । यथा - 'पुव्वम्मि पंचम - स्मि दु' इस प्रथम गाथा पर 'णाणपवादस्स पुव्वस्स' इत्यादि चूर्णिसूत्र हैं । 'गाहासदे असीदे' इत्यादि ११ गाथाओंके पूर्व 'अत्याहियारो पण्णारसविहो' यह चूर्णिसूत्र है । तथा उसके बाद चूणिसूत्रों द्वारा उनका नामनिर्देश किया गया है । १३, १४ वीं गाथाएँ तो १८० गाथाओं में सम्मिलित हैं ही और ये गुणधर आचार्य द्वारा निबद्ध हैं ऐसे सबने एक स्वरसे स्वीकार किया है। उनमेंसे १४वीं गाथाका अन्तिम पाद 'अद्धापरिमाण
सो' है । इसके बाद ही अद्धापरिमाणका निर्देश करनेवाली 'आवलिय अणाहारे' इत्यादि छह गाथाएँ निबद्ध की गई हैं । गुणधर आचार्यके अभिप्रायानुसार १८० गाथाओं में विभक्त जिन पन्द्रह अधिकारोंका नाम निर्देश किया गया है उनमें अद्धापरिमाण अधिकार सम्मिलित नहीं है । ऐसा होते हुए भी स्वयं गुणधर आचार्य
१. धवला द्वि० आ०, भा० १ पृ० ६८ जयधवला द्वि० आ०, भा० १, पृ० ७९ । २. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा भा० २, पृ० २८ । कषायपाहुड सुत्त प्रस्तावना १. १४ । ३. जयधवला द्वि० आ० भा० १, पृ० १६५ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org