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[ २५ ] एवमेत्तियण परूवणापबंधेण सत्थाणसजोगिकेवलिविसयं परूवणाविसेसं सरिसमाणिय संपहि एत्थेव चरितमोहणीयपुरस्सराणं घादिकम्माणं खवणाविही समप्पदि त्ति कयणिच्छओ एदस्सेव खवणाहियारस्स चूलियापरूवणट्ठमुवरिमाओ सुत्तगाहाओ पढइ तत्थ ताव पढमा सुत्तगाहा
इतना निर्देश करनेके बाद चूलिकासम्बन्धी १२ गाथाएं देकर जयधवलामें उनकी क्रमसे व्याख्या प्रस्तुत की गई है। प्रारम्भकी और अन्तकी दो गाथा सूत्र इस प्रकार हैं
अण-मिच्छ-मिस्स सम्मं अट्ठणकुंसित्थिवेदछक्कं च । पूंवेदं च खवेदि हु कोहादीए च संजलणे ॥ १ ॥ जाव ण छमत्थादो तिण्हं घादीण वेदगो होइ ।
अधणंतरेण खइया सव्वण्हू सव्वदरिसी य ।। १२ ।। लगता है कि इन दो सूत्रगाथाओंके रचयिता भी स्वयं गुणधर आचार्य ही है। फिर भी उपसंहारात्मक सूत्रगाथाएँ होनेके कारण इन्हें २३३ मूल सूत्रगाथाओं के अतिरिक्त स्वतन्त्र रूपसे नहीं स्वीकार किया गया है। इसकी पुष्टि चूलिकाके अन्त में पाये जानेवाले जमधवलाके समाप्तिसूचक इस वचनसे होती है
तदो चरित्तमोहक्खवणासण्णिदो कसायपाहुडस्स पण्णारसमो अत्याहियारो समप्पदि त्ति जाणावणटूमुवसंहारवक्कमाह-चरित्तमोहक्खवणा त्ति समत्ता । षट्खण्डागम और कषायप्राभृत
___ यह मूल आगम साहित्य है। इसे आगम इसलिये कहते हैं, क्यों कि भगवान् आदिनाथसे लेकर १४ पूर्वी और यथासम्भव ११ अंगोंमें जो निश्चित तत्त्व व्यवस्था निरूपिन की गई और अन्त में उसी रूपमें जिसकी प्ररूपणा भगवान् महावीरने की वही आचार्य परम्परासे आचार्य घरसेन और गुणधर को प्राप्त हुई । इसे सिद्धान्त कहनेका कारण भी यही है। यह किसीके चिन्तनका फल नहीं है, क्योंकि इस तत्त्वप्ररूपणाकी पृष्ठभूमिमें केवलजानका माहात्म्य है। जितने भी तीर्थंकर जिन हुए उन्होंने कभी भी अपनी कल्यनाओंको उपदेशका माध्यम नहीं बनाया। केवलज्ञान होनेपर जो वस्तुव्यवस्था ज्ञानमें आई, उसीकी प्ररूपणा की और वही आचार्यपरम्परासे वाचना द्वारा आती हई इन दोनों परमागमोंमें निबद्ध की गई।
षट्खण्डागम जीवस्थानको छोड़ कर शेष पाँच खण्डों की आधारभूत वस्तु महाकम्मपयडिपाहुड है ।' तथा कषायप्राभृतकी आधारभूत वस्तु पेज्ज-दोसपाहुड ( कसायपाहड ) है । जीवस्थानकी आधारभूत सामग्री अन्य मूल अंग-पूर्व भी हैं ।
__ धरसेन और गुणधर दोनों ही क्रमसे महाकम्मपयडिपाहुड और पेञ्जदोसपाहुडके पूर्ण ज्ञाता आचार्य थे। इनमेंसे कौन अल्प ज्ञाता था और कौन अधिक ज्ञाता था, अपनी कल्पित तर्कणाको माध्यम बना कर ऐसा विधान जो कीई भी करता है वह उपहास्यास्पद ही प्रतीत होता है । १. धवला द्वि० आ०, भा० १ पृ० १२६ । २. धवला द्वि० आ० भा० १ पृ० १२४ आदि । ३. भगवान महाबीर और उनकी आचार्य परम्परा पृ० २८ ।
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