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कौन-कौन आचार्य अपने पूर्ववर्ती गुरुसे अविकालरूपमें कितनी वाचना ग्रहण करने में समर्थ हए मात्र इस तथ्यकी ओर ही संकेत करता है । इससे पुरुषोलो क्रमसे मूल आगममें वाचनाक्रमसे किस प्रकार प्रामाणिकता बनी रही यह स्पष्ट हो जाता है ।
बौद्ध परम्परामें जो संगीतिके और श्वेताम्बर परम्परामें जो वाचनाके उल्लेख दृष्टिगोचर होते हैं, दिगम्बर परम्परा अनेक आचार्यों द्वारा किये गये अपनी-अपनी स्मतिके द्वारा संकलनरूप वैसी वाचनाको स्वीकर न कर गुरुपरम्परासे मिलने वाली क्रमिक वाचनाको ही स्वीकार करता है। इससे दिगम्बर परम्परामें वर्तमान कालमें उपलब्ध होनेवाले गुरुपरम्परानुसारी आगमकी प्रामाणिकता सुस्पष्ट हो जाती है।
स विधिसे देखनेपर मालम होता है कि धरसेन और गणघरको अपने पूर्ववर्ती गरुओंसे जो वाचना मिली थी वही धरसेन आचार्यने पुष्पदन्त और भतबलि आचार्यको दी और उस आधारपर पुष्पदन्त और भूतबलिने षट्खण्डागमकी रचना की । तथा गुणधर आचार्यने स्वयं कषायप्राभूतकी रचनाकर उसे क्रमसे आर्यमक्ष और नागहस्तिको समर्पित किया। जिनसे क्रमशः वाचना लेकर आचार्य यति वृषभने चूर्णिसूत्र लिखे ।
वर्तमानकालमें पटखण्डागम और कषायप्राभूत के अविकल रूपमें पाये जानेका यह संक्षिप्त इतिहास है । पटखण्डागमपर यद्यपि आचार्य कृन्दकुन्द आदिने अनेक टीकाएँ लिखीं, पर वर्तमान में एकमात्र आचार्य वीरसेन द्वारा लिखित टीका ही उपलब्ध होती है। तथा कषायप्राभूतपर सर्वप्रथम आचार्य यतिवृषभने चणिसून लिखे, उच्चारणाएं भी अनेक लिखी गई। जिनको सम्मिलितकर वर्तमान में जयधवला टीका पाई जाती है । अस्तु, कषायप्राभूत
जैसा कि हम पहले १४ पूर्वोका संकेत कर आये हैं, पाँचवा पूर्व उनसे एक है। उसके बारह वस्तु अधिकार है और उसके २० प्राभत नामक अधिकार है। प्रकृत में तीसरा पेज्ज-दोसपाहड (कसायपाहुड) विवक्षित है । इसीको माध्यम बनाकर आचार्य गुणधरने २३३ गाथाओं द्वारा प्रकृत पेज्जदोसपाहुडकी रचना की है।
यद्यपि आचार्य गुणधरने गाथा २ में १५ अधिकारोंमें विभक्त १८० गाथाओंके बनाने की प्रतिज्ञा की है. अतः कितने ही व्याख्यानाचार्य शेष ५३ गाथाओंको नागहस्ति आचार्य कृत मानते हैं। किन्तु जयधवला टीकाके रचयिता आचार्य वीरसेन उनके इस मतसे सहमत नहीं है। उनका कहना है कि यदि ये गाथाएँ गुणधरभट्टारककृत नहीं मानी जाती तो उन्हें अज्ञताका प्रसंग प्राप्त होता है । स्पष्ट है कि आचार्य गुणधरने सभी २३३ गाथाओंकी रचना करके भी मात्र पन्द्रह अधिकार सम्बन्धी प्रयोजनीय १८० गाथाओंका ही उल्लेख किया है।
कषायप्राभृतमें निर्दिष्ट १५ अधिकारोंकी प्ररूपणाके अन्तमें एक चूलिका नामका स्वतन्त्र अधिकार भी उपलब्ध होता है। इसमें सुत्र गाथा संख्या १२ है। उनमेंसे क्षपणासम्बन्धी १० सूत्र गाथाएँ २३३ गाथाओं में से ही ली गई हैं । प्रारम्भकी और अन्तकी शेष दो सूत्र गाथाएँ नई हैं। इनके रचयिता आचार्य गणधर हैं या अन्य कोई इसका संकेत वणिसत्रोंसे तो इसलिए नहीं मिलता, क्योंकि इन पर चणिसूत्रोंका सर्वथा अभाव है। जयधवला टीकामें अवश्य ही चूलिका अधिकारका स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार किया गया है । बहाँ लिखा है
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