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________________ [ २३ ] २. ग्रन्थ और ग्रन्थकार वाचना द्वारा प्राप्त आगम परम्परा भगवान् महावीरके बाद तीन अनुबद्ध केवली और पांच श्रुतकेवली हुए हैं। अन्तिम श्र तकेवली भगवान् भद्रबाहु थे। इनके जीवनकाल तक समग्र अंग-पूर्वज्ञानकी परम्पराका महागंगा नदीके प्रवाहके समान विच्छेद नहीं हुआ था। इसके बाद उसमें क्रमसे कमी आती गई, जिसमें ६८३ वर्ष लगे। इस ६८३ वर्षकी परम्पराका उल्लेख त्रिलोकप्रज्ञप्ति तथा धवला, जयधवला आदि ग्रन्थों में अनेक आचाल्ने किया है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि आचार्य वीरसेनने धवलामें ६८३ वर्षप्रमाण कालगणनाका निर्देश नहीं किया है। वहाँ यह भी बतलाया है कि इस श्रुत विच्छेदकी कड़ी में श्रुतका समूल विच्छेद कभी नहीं हुआ, उसका एक देश ज्ञान अविकल बना रहा। इस काल में जितना भी परम्परानुमोदित श्रुत लोकमें अवस्थित है यह उसीका सुपरिणाम है। ऐसे ही मूल श्रुतके ज्ञाता जितने भी आचार्य हमारी दृष्टि में आये हैं उनमेंसे प्रकृतमें दो प्रमुख हैं-एक धरसेन और दूसरे गुणधर । धरसेन सोरठ देशके गिरिनारकी चन्द्रगुफामें ध्यान-अध्ययन करते हुए रहते थे। लगता है कि जन्मसे लेकर इनका पूरा जीवन मुक्यतया सौराष्ट्रमें ही व्यतीत हुआ था। आचार्य वीरसेनने धवला (पु० १, पृ० ६८ आदि) में षट्खण्डागमके समुद्धारका इतिहास लिपिबद्ध किया है उससे कई तथ्योंपर प्रकाश पड़ता है, यथा १. उस समय दक्षिणापथ और उत्तरापथके जितने भी दिगम्बर मुनिसंघ थे उनमें परस्पर सम्पर्क बना हुआ था। २. उसे और मजबूत करने के लिए ही दक्षिणापथके आचार्योंका आन्ध्र प्रदेशमें वहनेवाली वेण्णा नदीके तटपर एक सम्मेलन हुआ था। ३. उसी सम्मेलनमें सम्मिलित हए आचार्योंको लक्ष्यकर गिरिनारकी चन्द्रगफावासी धरसेन आचार्यने एक पत्र लिखा था, जिसके द्वारा ग्रहण-धारण करने में समर्थ योग्य दो साधुओंको भेजनेका संकेत किया गया था। इससे विदित होता है कि गौतम गणधरसे लेकर वाचनाका जो क्रम चालू था वह गुरुपरम्परासे उन तक आगे भी बराबर चालू रहा । प्रश्न यह है कि आचार्य धरसेनने वाचना देने के लिए दक्षिणसे ही योग्य दो साधुओंको क्यों बुलाया था; क्या सौराष्ट्र या उसके आस-पासके प्रदेशमें वाचना ग्रहण करनेमें समर्थ योग्य साधुओंका सर्वथा अभाव हो गया था, यदि हाँ तो क्यों ? यह एक प्रश्न है जिसकी ओर अभी तक किसी भी इतिहास लेखकका ध्यान नहीं गया है । दक्षिण-प्रतिपत्ति पवाइज़्जमाण-आचार्य परम्परासे आई हुई है और उत्तर प्रतिपत्ति अपवाइज्जमाण आचार्य परम्परासे आई हई नहीं है इसके वीज इसमें छिपे हुए तो हैं ही। साथ ही इससे और भी कई तथ्योंपर प्रकाश पड़ना सम्भव है। षट्खण्डागमकी उपलब्ध टीका धवला आदि ग्रन्थोंमें ६८३ वर्ष तक मूल अंग पूर्व सम्बन्धी श्रुतपरम्परा क्रमिक रूपसे न्यून होते जानेका जो निर्देश किया गया है उसे उत्तरोत्तर किस काल तक और १. धवला पु० १, पृ० ६५ । २. धवला पु० १, पृ० ६८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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