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________________ [ २२ ] समघात करते समय प्रारम्भके चार समयोंमें एक-एक समयके भीतर आयुकर्मके बिना शेष तीन अघाति कर्मोकी अवशिष्ट रही स्थितिके असंख्यात बहभागका घात करता है और अप्रशस्त कर्मों के शेष रहे अनुभागके अनन्त बहुभागका घात करता है। इसके आगे स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डक अन्तमुहर्तप्रमाण होता है। जिस समय यह जीव लोकपूरण क्रिया सम्पन्न करता है उस समय योगकी एक वर्गणा होती है । इसका तात्पर्य यह है कि इसके पहले आत्मप्रदेशोंमें योगके अविभाग प्रतिच्छेद होनाधिक होते है यहाँ वे सभी प्रदेशोंमें समान हो जाते हैं सो ये सूक्ष्म निगोदिया जोवके जघन्य योगसम्बन्धी जघन्य वर्गणासे भी हीन होते हैं जो मात्र एक समय तक रहते हैं । इसके बाद पुनः हीनाधिक हो जाते हैं । केवलिसमुद्घात के बाद केवली जिन योगनिरोधकी क्रिया सम्पन्न करते हैं । पहले जो बादर मन, वचन, काय होते हैं उन्हें यथाविधि सूक्ष्म करते हैं और इस प्रकार क्रमसे मनोयोग और वचनयोगका तथा बादर काययोगका अभावकर बे सूक्ष्म काययोगी होकर सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति ध्यानको प्राप्त होते हैं । तथा जिस समय सूक्ष्म काययोगका प्रारम्भ होता है उसी समयसे लेकर पहले योगसम्बन्धी पूर्व स्पर्धकोंसे नीचे अन्तर्मुहर्त काल तक श्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण अपूर्व स्पर्धकोंकी रचना करते हैं। इनकी प्रथमादि समयोंमें किस प्रकार रचना होती है इसे मूलसे जान लेना चाहिए। परन्तु जीवप्रदेशोंके अपकर्षणकी विधि इससे उलटी है। अर्थात योगको उत्तरोत्तर कम करने के लिए प्रथम समयमें जितने जीवप्रदेशोंका अपकर्षण करते हैं, द्वितीयादि समयोंमें उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे जीवप्रदेशोंका अपकर्षण करते हैं । ये योगसम्बन्धी सभी अपूर्व स्पर्धकोंके समान जगश्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं । इसके बाद वह अपूर्व स्पर्धकोंसे नीचे जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण सूक्ष्म कृष्टियोंको करते हैं जो अपूर्व स्पर्धकोंसे असंख्यातगुणी हीन शक्तिवाली होती है। जिस समय ये कृष्टिकरणकी क्रिया सम्पन्न करते हैं उसके अनन्तर समयमें दोनों प्रकारके स्पर्धकोंका अभावकर अर्थात उन्हें सूक्ष्म कृष्टिरूप करके सूक्ष्म कृष्टिगत योगी हो जाते हैं । इस प्रकार सूक्ष्म कृष्टिगत योगी होकर प्रथम समयमें सब कृष्टियों के असंख्यातवें भागप्रमाण नीचेकी और ऊपरकी कृष्टियोंको मध्यम कृष्टिरूप परिणमाकर नष्ट करते हैं तथा बहभागप्रमाण कृष्टियोंको उदय द्वारा नष्ट करते हैं। इसके बाद उत्तरोत्तर विशेष हीन कृष्टियोंका उदय होता है और इस प्रकार सूक्ष्म कृष्टिके वेदक सयोगी जिन तीसरे सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति ध्यानको ध्याते हैं । जब सयोग गुणस्थानका अन्तिम समय प्राप्त होता है तब जो कृष्टियोंके असंख्यात बहुभागप्रमाण मध्यकी कृष्टियाँ शेष रहती हैं उन सबका नाश करते हैं । जिस समय सयोगी गुणस्थानका अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहता है उस समय वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म के अन्तिम स्थितिकोण्डकको नाश करनेके लिए ग्रहण करते हैं। इसमें सयोगी और अयोगी गुणस्थानके कालके जितने समय शेष रहते हैं तत्प्रमाण निषेकोंको छोड़कर गुणश्रेणिशीर्ष सहित सम्पूर्ण उपरिम स्थितिको ग्रहण करते है। इस प्रकार उक्त कर्मोंकी स्थिति को घटाते हुए अयोगी जिनके प्रथम समयमें आयुकर्मके समान शेष कर्मोकी स्थिति शेष रह जाती है । तब ये अन्तर्मुहुर्तकाल तक शीलके ईशपनेको प्राप्त होकर समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति नामके ध्यानको ध्याते हैं। और इस प्रकार यह जीव सब कर्मोंसे विप्रमुक्त होकर सिद्धिगतिको प्राप्त हो जाता है । इस सिद्धिगतिको प्राप्त हुए वे सिद्ध भगवान हमें उत्कृष्ट सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्र लद्धिके साथ उत्कृष्ट समाधि प्रदान करें। यह लब्धिसार ग्रन्थका संक्षिप्त सार है। इसमें उन विषयोंको कम स्पर्श किया गया है जिनके लिए बहु वक्तव्य अपेक्षित था । हो सकता है कि इसमें कहीं कोई त्रुटि रह गई हो तो जिज्ञासु जन मूल आगमसे मिलाकर उसका स्वाध्याय करेंगे और त्रुटियोंके लिए हमें क्षमा करेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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