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________________ [२१] विच्छेद होता है। इस गुणस्थान में जिसके निद्रा ओर प्रचलाका उदय है उसके उनकी उपान्त्य समय में उदय व्युच्छित्ति हो जाती है । शेष १४ घाति प्रकृतियोंकी अन्तिम समय में व्युच्छित्ति होती है । वेद तीन हैं और कषाय चार हैं, सो इनके द्विसंयोगी भंग बारह होते हैं । इनमेंसे किसी एक वेद और किसी एक कषायके उदयसे जीव पर चढ़नेका अधिकारी है। इस दृष्टिसे होनेवाली विशेषताको मूलसे जान लेना चाहिए। अपक इसके बाद चार पातिकमोंकी उदय और सस्त्र व्युच्छित हो जाने के कारण यह जीव सर्वज्ञ-सर्वदर्शी सयोगी जिन हो जाता है । इसके प्रथम समय में ही चार घाति कर्मोंका अभाव होनेसे अनन्त चतुष्टयकी युगपत् प्राप्ति होती है। ऐसा नियम है कि ज्ञानावरण के समूल नाशसे केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है । दर्शनावरणके समूल नाश केवलदर्शनकी प्राप्ति होती है दीयन्तरामके नाशसे अनन्त वीकी प्राप्ति होती है और नौ नोकषायों तथा शेष चार अन्तरायोंके नाशसे अनन्त सुखफी प्राप्ति होती है । यह पहले ही बतला आये हैं कि मोहकी सात प्रकृतियोंके अयसे क्षायिक सम्यदर्शनको प्राप्ति होती है और शेष चारित्रमोहनीयकी अप्रत्याख्यानावरण आदि बारह प्रकृतियोंके क्षयसे क्षायिक चारित्रकी प्राप्ति होती है । नौ नोकषाय और दानान्तराय आदि चार अन्तरायोंके उदयका बल पाकर संसारी जीवोंके वेदनीयके । उदयजन्य जो इन्द्रियज सुख-दुख देखे जाते हैं उनका इनके सर्वथा अभाव हो जाता है, क्योंकि उन कर्मोंका बल न मिलने से वेदनीयकर्म अपना कार्य करने में अक्षम है। इसके सातावेदनीयका एक समयवाला स्थितिबन्ध होनेसे सातावेदनीय निरन्तर उदय प्रकृति होने के कारण जिस समय असातावेदनीयका उदय होता है वह सातारूप परिणम जाता है इनके परमोदारिक शरीर होता हैं, क्योंकि एक तो बारहवें गुणस्थानके अन्तिम समय तक इनके शरीर में रहनेवाले निगोद जीवोंका अभाव हो जाता है, दूसरे उनके गलित होकर प्रति समय शेष रही स्थितिप्रमाण दिव्यतम नवीन नोकर्म वर्गणाओंका बन्ध होता रहता है। इतनी विशेषता है कि समुद्धातरूप अवस्थामें दोनों प्रतर और लोकपूरणकाल के भीतर तीन समयतक इन नोकर्म वर्गणाओंका बन्ध नहीं होता । सयोगी जिनके शेष कालमें उक्त वर्गणाओं का निरन्तर बन्भ होता रहता है । जब आयुमै अन्तर्मुहूर्तकाल शेष रहता है तब शेष तीन अघाति कर्मोकी स्थितिको आमुकर्मकी स्थिति के बराबर करने के लिए यथासम्भव केवली जिन समुद्घात करते हैं । दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरणके भेदसे वह चार प्रकारका है । इसके करने और समेटने में ८ समय लगते हैं । जिस समय केवली जिन समुद्घात के सन्मुख होते हैं तब आवजितकरण होता है । इसका काम केवली जिनको समुद्घात के सम्मुख करना है । केवली जिनके स्वस्थान अवस्थाके रहते हुए तथा आवर्जित करणके कालमें स्थिति और अनुभागका घात नहीं होता । यहाँ उदयादि अवस्थित गुणश्रेणि आयाम है तथा गुणश्र णिका द्रव्य भी अवस्थित रहता है। मात्र स्वस्थान केवलोके स्वस्थान गुणय णि आयामसे आवजितकरण सम्बन्धी गुणश्रेणि आयाम संख्यात गुणा हीन होता है । स्वस्थान गुणश्र णिके कालमें जितने द्रव्यका अपकर्षण होता है उससे आवर्जितकरण के कालमें असंख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षण होता है। इसका कारण अवशिष्ट रहे अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आयुकर्मको जानना चाहिए । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि आवर्जितकरणके सम्पन्न होने के बाद केवली जिन केवलसमुद्घात क्रिया सम्पन्न करते हैं । आवजितकरण गुणश्रोणिका काल आवर्जितकरण करने के समय से लेकर शेष रहा सयोगी जिनका काल और अयोगी जिनके कालका संख्यात भाग इन दोनोंको मिलानेपर जितना होता है उतना होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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