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________________ अपूर्वकरण में क्रियाविशेषका निर्देश अहाणं पयडीणं अनंतभागा रसस्स खंडाणि । पडणं णियमा णत्थि त्ति रसस्स खंडाणि ॥ ४०९ || अशुभानां प्रकृतीनां अनंतभागा रसस्य खंडानि । शुभप्रकृतीनानियमात् नास्तीति रसस्य खंडानि ॥ ४०९ ॥ स० चं० - अशुभ प्रकृतिनिका अनन्त बहुभागमात्र अनुभागकांडकका प्रमाण है । पूर्वे जो अनुभाग था ताकौं अनन्तका भाग दोएं तहां बहुभागमात्र प्रथम अनुभाग कांडकविषै घटाइए है अवशेष एक भागमात्र अनुभाग रहे है । बहुरि ताकौं अनन्तका भाग दीएं तहां बहुभाग दूसरा अनुभागकisaविषै घटाइए है अवशेष एक भाग अनुभाग रहै है । ऐसें अन्त अनुभागकांडक पर्यन्त क्रम जानना । या प्रकार अप्रशस्त प्रकृतिनिका अनुभागखंड इहां हो है । बहुरि प्रशस्त प्रकृतिनिका अनुभागखंड नियमत न हो है जातें विशुद्ध परिणामनिकरि शुभप्रकृतिनिके अनुभाग का घटावना सम्भवता नाहीं । ऐसें अनुभागखंडका स्वरूप कह्या ||४०९ ॥ Jain Education International पढमे छट्ठे चरिमे भागे दुग तीस चदुर वोछिण्णा । घे अव्वस्य से काले बाद होदि || ४१० ॥ प्रथमे षट्के चरमे भागे द्विकं त्रिंशत् चतस्रो व्युच्छिन्नाः । बन्धेन अपूर्वस्य च स्वं काले बादरो भवति ॥ ४१० ॥ ३४३ स० चं०-- -- पूर्वोक्त प्रकार स्थितिबंधापसरणनिकरि घटि घटि संख्यात हजार स्थितिबंध भए कहा ? सो कहिए है अपूर्वकरणका कालके समान सात भाग करिए तहां प्रथमभागका अंत शमयविषै निद्रा प्रचला इनि दोऊनि बंधकी व्युच्छित्ति भई । इहां ही निद्रा प्रचलाका द्रव्य है सो गुणसंक्रमण विधान करि इहां बध्यमान स्वजातीय चक्षु अचक्षु अवधि केवलदर्शनावरणीय तिन विषै संक्रमण करे है । बहुरि यात परं संख्यात हजार स्थितिबन्ध भएं ताका छठा भागका अंत समयविष देवगति १ पंचेन्द्री जाति १ वैक्रियिक तैजस आहारक कार्माण शरीर ४ समचतुरस्र संस्थान १ वैक्रियिक आहारक अंगोपांग २ वर्णादि च्यारि ४ देवानुपूर्वी १ अगुरुलघु १ उपघात १ परघात १ उश्वास १ प्रशस्तविहायोगति १ त्रस १ बादर १ पर्याप्त १ प्रत्येक १ स्थिर १ शुभ १ शुभग १ सुस्वर १ आदेय १ निर्माण १ तीर्थकर १ इन तीस प्रकृतिके बंधकी व्युच्छित्ति हो है । बहुरि यात संख्यात हजार स्थितिबंध भए अपूर्वकरणका अंत समयविषै हास्य १ रति १ भय १ जुगुप्सा १ इन च्यारिनिके बंधकी व्युच्छित्ति हो है । अर इहां ही छह नोकषायनिके उदयकी व्युच्छित्ति हो है। जहां उपरि समयसंबंधी भाव सर्वदा नीचले समय संबंधी भाबनिके समान न होंइ सो कर्म १. अप्पसत्याणं कम्माण मणुभागस्स अणंते भागे खंडयं गेहदि । ध० पु० ६, ३४५ । २. एवं द्विदिबंधसहस्से हिं गदेहिं अपुव्वकरणद्धार संखेज्जदिभागे गदे तदो विद्दा-पयलाणं बंधवो - च्छेदो । ताधे चेव ताणि गुणसंकमेण संकमंति । तदो द्विदिबंधसहस्सेसु गदेसु परभवियणामाणं बंधवोच्छेदो जादो । तदो द्विदिबंध सहस्सेसु गदेसु चरिमसमयअपुव्वकरणं पत्तो । से काले पढमसमयअणियट्टी जादो । क० चु० पृ० ७४३ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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