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________________ उपशमश्रेणीसे उतरते समय नपुंसकवेदादिसम्बन्धमें विशेष निरूपण ३१३ ही माया उदय सहित चढया पड्या जीवकै क्रोध सहित चढयाकै क्रोध मान मायाके उदयका जितना काल होइ तितना मायाका उदय काल है। लोभ उदय सहित चढ्या पड्या जोवकैं क्रोध सहित चढ्याक जितना क्रोध मान माया लोभका उदय काल होइ तितना एक लोभ होका उदय काल हो है । बहुरि मान माया सहित चढिकरि पडे जीव क्रमतें मान माया लोभका द्रव्यकौं अपकर्षणकरि ज्ञानावरणादिकनिको गुणणि आयामके समान गलितावशेष आयामकरि गुणश्रेणि करै है । भावार्थ यहु-मानका उदय सहित चढि जो जीव पड्या ताकै क्रमतें लोभ मानका उदय होइ। तहाँ मानका उदय भएँ मोहका गुणश्रोणि आयाम और कनिके समान कर है । जातें याकै क्रोधका उदय होना नाहों। ऐसे ही माया सहित चड्या पठ्याक लोभका उदय आया पीछे मायाका उदय आए अर लोभका उदय सहित चढि पड्याकै लोभ हीका उदय है तातें पहले ही अन्य कर्मनिके समान मोहका गलितावशेष गुणश्रेणि आयाम हो है ॥३५८॥ माणादितियाणुदये चडपडिये सगसगुदयसंपत्ते । णवछत्तिकसायाणं गलिदवसेसं करेदि गुणसेढिं ॥३५९।। मानादित्रयाणामुदये चटपतिते स्वकस्वकोदयसंप्राप्ते । नवनिकषायाणां गलितावशेषां करोति गुणश्रेणिम् ॥३५९।। सं० टी०--मानमायालोभोदयैरारूढपतितः स्वस्वकषायोदयं सम्प्राप्तः यथासङ्ख्यं नवनिकषायाणां गलितावशेषायामां पूर्वोक्तप्रकारेण गुणश्रोणि करोति ॥३५९॥ स० वं०-मान माया लोभका उदय सहित चढ्या पड्या जीव हैं ते अपनी-अपनी कषायका उदयकौं प्राप्त होत संते क्रमतै नव कषायनिकी अर छह कषायनिकी अर तीन कषायनिकी पूर्वोक्त प्रकार गलितावशेष आयाम गुणश्रेणि करै हैं। भावार्थ यह-जैसैं क्रोधका उदय सहित चढि पडया जीव क्रोधका उदय आएं बारह कषायनिका पूर्वोक्त प्रकार गलितावशेष आयाम लीएँ गुणश्रेणि करै है तैसैं मानका उदय सहित चढि पड्या जीव मानका उदय आएँ क्रोध विना नव कषायनिका करै है। माया सहित चढि पड्या जीव मायाका उदय भएँ लोभ मायारूप छह कषायनिका करे है। लोभ सहित चढि पड़या जीव लोभका उदय आएँ तीन प्रकार लोभ हीका अन्य कर्मनिके समान गलितावशेष गुणश्रेणि आयाम करै है ।।३५९।। जस्सुदएण य चडि दो तम्हि य उक्कट्टियम्हि पडिऊण । अंतरमाऊरेदि हु एवं पुरिसोदए चडिदो ॥३६०।। यस्योदयेन च चटितः तस्मिश्च अपकषिते पतित्वा । अंतरमापूरयति हि एवं पुरुषोदये चटितः ।।३६०।। सं० टी०-यस्य कषायस्योदयेन श्रेणिमारुह्य पतितः तस्मिन् कषायेऽपकृष्टे न्तरमापूरयति । एवमुक्तप्रकारेण वेदोदयेन श्रण्यारूढावरूढो व्याख्यातः ।।३६०॥ स० चं०-जिस कषायका उदय सहित चढि पड्या होइ तिस ही कषायका द्रव्यका अपकषण होत संतै अंतरकौं पूरै है । नष्ट कीए निषेकनिका सद्भाव करै है। भावार्थ यहु-जैसै क्रोध ४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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