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लब्धिसारं
इसी प्रकार चढते समय और उतरते समयके सब कालोंके विषयमें जानना चाहिये । इससे हमें यह पता लग जाता है कि उतरते समय मोहनीयका असंख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध किस स्थानसे प्रारम्भ हो जाता है । शेष कथन सुगम है। अथावतरणे लोभसंक्रमप्रतिघातादिप्ररूपणार्थं गाथात्रयमाह
लोहस्स असंकमणं छावलितीदेसुदीरणत्तं च । णियमेण पडताणं मोहस्सणुपुव्विसंकमणं ॥३३१।।
लोभस्य असंक्रमणं षडावल्यतीतेषूदीरणत्वं च ।
नियमेन पततां मोहस्यानानुपूविसंक्रमणम् ॥३३१॥ सं०टी०-अवतारकसूक्ष्मसाम्परायप्रथमसमयादारभ्याधःसर्वावस्थासु बध्यमानज्ञानावरणादिकर्मणां समयप्रबद्धद्रव्यमारोहके षडावलिकां व्यतिक्रम्य उदीयत इति नियम: प्रागक्तः, तं परित्यज्य इदानी बन्धावलीव्यतिक्रमे उदीयते । अवतारकानिवृत्तिकरणप्रथमसमयादारभ्य लोभस्यासंक्रमोऽधः सर्वत्रारोहकविपर्ययेण प्रतिहन्यते । संज्वलनलोभस्य मायादिषु संक्रमणशक्तिपरिणतिर्जातेत्यर्थः। तथा मोहस्य नपुंसकादि प्रकृतीनां आनुपूर्वीसंक्रमश्च नष्टः । आरोहणे य आनुपूर्वीसंक्रमः प्रागक्तस्तं परित्यज्य इदानीमनाना बध्यमाने सजातीयप्रकृत्यन्तरे यत्र तत्र वा संक्रमो जातः इत्यर्थः ॥३३१॥
स० चं०-उतरनेवालेक सूक्ष्मसाम्परायका प्रथम समयतें लगाय बंधे थे जे कर्म तिनकी छह आवली व्यतीत भए उदीरणा होनेका नियम था ताकौं छोडि बन्धावली व्यतीत होते ही उदीरणा करिए है बहुरि उतरने वालेकै अनिवृत्तिकरणका प्रथम समयतें लगाय लोभका संक्रमण था सो चढनेवालेनै विपरीत रूपकरि हणिए है। संज्वलन लोभकी मायादिकविर्ष संक्रम होनेकी शक्ति भई यहु अर्थ जानना। बहुरि मोहकी सर्व प्रकृतिनिका जो आनुपूर्वी संक्रमका नियम भया था सो नष्ट भया जहाँ तहाँ स्वजातीय कोई चारित्रमोहकी प्रकृतिका कोई चारित्रमोहकी प्रकृतिनिविषै संक्रमण हो है ॥३३१॥
विशेष-जयधवलामें बतलाया है कि प्रकृत विषयको लक्ष्यमें लेकर चूर्णिसूत्रमें जो 'सव्वस्स' पद आया है सो उसका आशय यह है कि उतरते समय सूक्ष्मसाम्परायसे लेकर ही छह आवलि जानेपर उदीरणा होती है यह नियम नहीं रहता। अन्यथा चूर्णिसूत्रमें 'सव्वस्स' यह विशेषण देनेकी क्या आवश्यकता थी । किन्तु दूसरे आचार्य ऐसा मानते हैं कि उतरनेवाले जीवके जब तक संख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है तब तक छह आवलि जानेपर उदीरणा होती है यही नियम रहता है। किन्तु जहाँसे असंख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होने लगता है वहाँसे यह नियम नहीं रहता, किन्तु एक बन्धावलिके बाद ही उदीरणा प्रारम्भ हो जाती है। पर जयधवलाकार 'सव्वस्स' पद होनेसे पूर्वोक्त अर्थको ही ठीक मानते हैं।
विवरीयं पडिहण्णदि विरयादीणं च देसघादित्तं ।
तह य असंखेज्जाणं उदीरणा समयपबद्धाणं ॥३३२॥ १. सव्वस पडिवदमाणगस्स छसु आवलियासु गदासु उदीरणा इदि णत्थि णियमो आवलियादिक्कंतमृदीरिज्जदि । अणियट्टिप्पहुडि मोहणीयस्स अणाणुपुग्विसंकमो लोभस्स वि संकमो । वही पृ० १९०६ ।
२. एदेण कमेण संखेज्जेसु द्विदिवंधसहस्सेसु गदेसु अणुभागबंधेण वीरयंतराइयं सव्वघादी जादं ।
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