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________________ उतरते समय नपुंसकवेदादिसम्बन्धी निर्देश २९३ षंढानुपशमे प्रथमे मोहैकविशानां भवति गुणश्रेणी। अंतरकृत इति मध्ये संख्यभागेष्वतीतेषु ।।३२९।। सं० टी०--ततः संख्यातसहस्रस्थितिबन्धेषु एकस्मिन् समये नपुंसकवेदोपशमो विनष्टः। तत्प्रथमसमये नपंसकवेदद्रव्यमपकृष्य इतरकर्मगलितावशेषगणण्यायामसमाने उदयावलिबाह्यगणण्यायामे अन्तरायामे द्वितीयस्थितौ च पूर्वोक्तविधानेन निक्षिपति । अवशिष्टविशतिमोहप्रकृतीनां द्रव्यमपकृष्य गलितावशेष.. गुणश्रेणि प्राग्वत् करोति । नपुंसकवेदीपशमविनाशप्रथमसमयादारभ्य आरोहकानिवृत्तिकरणस्यांतरकरणनिष्ठापनचरमसमयपर्यन्तं योऽन्तर्महूर्तकालस्तस्य संख्यातबहुभागेषु तदन्तरे ॥३२९॥ स० चं०-तातें बंधता क्रमकरि संख्यात हजार स्थितिबन्ध गएँ नपुसकवेदका उपशम नष्ट भया ताके प्रथम समयविर्ष नपुसकवेदके द्रव्यकौं अपकर्षणकरि उदयावलीतैं बाह्य समयतें लगाय अर अन्य बीस मोह प्रकृतिनिके द्रव्यकौं अपकर्षणकरि पूर्वोक्त प्रकार अन्य कर्मनिके समान गलितावशेष गुणश्रेणि आयामविषै अंतरायामविषै द्वितीय स्थितिविष निक्ष पण करै है। बहुरि नपुसक वेदका उपशम नाश होनेके समयतें लगाय उतरता संता चढनेवाला जिस अवसरविर्षे अंतर करणका समाप्तपना करै तिस अवसर पावने पर्यंत अंतमुहूर्त काल है ताका संख्यात बहुभाग व्यतीत भएँ कहा ? सो कहैं हैं ॥३२९।। मोहस्स असंखेज्जा वस्सपमाणा हवेज्ज ठिदिबंधो । ताहे तस्स य जादं बंधं उदयं च दुट्टाणं ॥३३०।। मोहस्य असंख्येयानि वर्षप्रमाणानि भवेत् स्थितिबन्धः । तस्मिन् तस्य च जातो बन्ध उदयश्च द्विस्थानम् ॥३३०॥ सं० टी०- मोहनीयस्यासंख्यातवर्षमात्रः स्थितिबन्धः । ततोऽसंख्येयगुणो घातित्रयस्य स्थितिबन्धः । ततोऽसंख्ययगुणो नामगोत्रयोः स्थितिबन्धः । ततो विशेषाधिको वेदनीयस्य स्थितिबन्धः । तस्मिन्नेवावसरे मोहनीयस्य द्विस्थानानुभागबन्धोदयौ जातौ ।।३३०।। स० चं०-मोहनीयका असंख्यातवर्ष तीन घातियानिका तातें असंख्यातगुणा, नाम गोत्रका तातें असंख्यातगुणा, वेदनीयका तातै अधिक स्थितिबन्ध हो है। इस हो अवसरविषै मोहनीयका लता दारुरूप द्विस्थानगत बन्ध वा उदय भया ॥३३०।। विशेष-उपशमणि पर चढते हए जिस स्थानपर पहुँचकर अन्तरकरण करके मोहनीयका संख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध करता है, उतरते समय उस स्थानको प्राप्त करनेके अन्तमहर्त पूर्व विद्यमान इस जीवके उपशमश्रेणिसे गिरनेके कारण मोहनीयका असंख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध हो जाता है, क्योंकि चढ़ते समय जितना समय लगता है उतरनेमें विशेष हीन समय लगता है। इसलिये प्रकृतमें उपयुक्त यह अर्थ कहना चाहिय । यथा-चढ़ते समयका सूक्ष्मसाम्पराय काल और उतरते समयका सूक्ष्मसाम्पराय काल इन दोनोंको मिलाकर देखनेपर मालूम पड़ता है कि चढ़ते समयके सूक्ष्मसाम्पराय कालसे उतरते समयका सूक्ष्मसाम्पराय काल अन्तमुहूर्त कम है। १. णqसयवेदे अणुवसंते जाव अंतरकरणद्धाणं ण पावदि एदिस्से अद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु मोहणीयस्स असंखेज्जवस्सिओ दिदिबंधो जादो । ताधे चेव दुढाणिया बंधोदया। वही पृ० १५०५-१९०६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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