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________________ जीवके उपशमश्रेणिके चढ़ने उतरनेका निर्देश २७५ अद्धाक्षये पतन् अधःप्रवृत्त इति पतति हि क्रमेण । शुद्धयन् आरोहति पतति स संक्लिश्यन् ॥३१०॥ सं० टी०-आयुषि सत्यद्धाक्ष तर्मुहर्तमात्रोपशान्तकषायगुणस्थानकालावसाने सति प्रतिपतन् स उपशान्त षायः प्रथमं नियमेन सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थाने प्रतिपतति । ततोऽनन्तरमनिवत्तिकरणगुणस्थाने प्रतिपतति । तदन्यपूर्वकरणगुणस्थाने प्रतिपतति । ततः पश्चादप्रमत्तगुणस्थाने अघःप्रवृत्तकरणपरिणाम प्रतिपतति । एवमधःप्रवृत्त करणपर्यन्तमनेनैव क्रमण प्रतिपातो नान्यथेति निश्चेतव्यं । यः पुनः शुद्धयन् वर्धमानविशुद्धिपरिणामः उत्तरोत्तरगुणस्थानान्यारोहति स एव कषायोदयवशात् विद्धिहान्या संव अधोऽधो गुणस्थानेषु तिपतति न पुनरुपशान्तकषायस्यैवंविधारोहणप्रतिपातौ सम्भवतस्तस्य स्वगुणस्थानकाल चरमसमयपर्यन्तमवस्थितपरिणामस्वेन विशद्धिसंक्लेशयोििनवृद्धिपरावृत्त्यसम्भवात् । ननूपशान्तकषायस्यावस्थितविशुद्धिपरिणामत्वात् कथं प्रतिपातः संभवतीति नाशङ्कनीयं उपशान्तकषायगुणस्थानकालस्यान्तमुहूत्पिरं नियमेन प्रक्षयादुपशमनकालक्षयहेतुकप्रतिपातस्य संभवाविरोधात् । अत एवायं प्रतिपातोऽद्धाक्षयहेतुक एव न विशुद्धिपरिणामहानिनिबन्धनो नाप्यन्यनिमित्तक इति ॥३१०॥ अद्धाक्षयके कारण उपशान्तकषायसे पतनका निर्देश स० चं० -आयु विद्यमान होते अद्धा क्षयविषै अंतर्मुहुर्तमात्र उपशांत कषायका काल अंत भए पडिकरि सूक्ष्मसाम्पराय होइ पीछे अनिवृत्तिकरण होइ । पीछे अपूर्वकरण होइ । पीछे अधःप्रवृत्तकरणरूप अप्रमत्त हो है। ऐसैं अधःप्रवृत्तकरणपर्यंत तो अनुक्रमते पड़ना होइ ही होइ। पी, जो विशद्धता यक्त होइ ऊपरिके गणस्थानविषै चढे अर संक्लेशता करि यक्त होइ तौनी गुणस्थाननिविषै पडे किछू नियम नाहीं। बहुरि या प्रकार संक्लेश विशुद्धताके निमित्तकरि उपशांतकषायतें पडना चढना न हो है । जातै तहाँ परिणाम अवस्थिति विशुद्धता लीएं वर्ते है । बहुरि तहाँतें जो पडना हो है सो तिस गुणस्थानका काल भए पीछे नियमतें उपशम कालका क्षय होइ तिसके निमित्ततें हो है। विशुद्ध परिणामनिकी हानिके निमित्ततें तहांत नाही पडै है वा अन्य कोई निमित्ततें नाहीं है ऐसा जानना ॥३१०॥ विशेष-ग्यारहवाँ गुणस्थानवाला जीव एक तो भवका अन्त होनेसे गिरता है और दूसरे सर्वोपशमका जो अन्तमुहूर्त काल है उसका अन्त होनेसे गिरता है। ग्यारहवें गुणस्थानसे गिरनेका अन्य कोई कारण नहीं है ऐसा यहाँ स्पष्ट समझना चाहिये। ऐसा जीव ७ वें गुणस्थान तक क्रमसे उतरता है उसके बाद परिणामोंके अनुसार गिरना-चढ़ना होता है। इसे टीकामें बतलाया ही है। अथ सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थाने प्रतिपतितस्य क्रियाविशेषप्रतिपादनाथ गाथाचतुष्टयमाह सुहुमप्पविट्ठसमयेणधुवसामणतिलोहगुणसेढी ।। सुहुमद्धादो अहिया अवट्टिदा मोहगुणसेढी' ॥३११।। सुक्ष्मप्रविष्टसमयेनाध्र वशमत्रिलोभगुणश्रेणी। सक्ष्माद्धातोऽधिका अवस्थिता मोहगणश्रेणी ॥३११॥ १. पढमसमयसुहुमसांपराइएण तिविहं लोभमोकड्डियूण संजलणस्स उदयादिगुणसेढो कदा। जा तस्स किटीलोभवेदगद्धा तदो विसेसूत्तरकालो गुणसेढिणिक्खेवो। ता० मु०, पृ० १८९२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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