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________________ २७४ लब्धिसार जिनकी उदीरणा सम्भव है उनकी उदीरणा होने लगती है। इसी प्रकार अपकर्षण, उत्कर्षण. अप्रशस्त उपशम आदिके विषयमें भी जान लेना चाहिये। सोदीरणाण दव्वं देदि हु उदयावलिम्हि इयरं तु । उदयावलिबाहिरगे गोपुच्छाए देदि सेढीये' ॥३०९।। सोदीरणानां द्रव्यं ददाति हि उदयावलौ इतरत्त। उदयावलिवाह्यके अन्तरे ददाति श्रेण्याम् ॥३०९॥ सं० टी०--भवक्षयादुपशान्तकषायगुणस्थानात्प्रतिपतितदेवासंयतः प्रथमसमये उदयवतामप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान-संज्वलनक्रोधमानमायालोभानामन्यतमस्य कषायस्य पुंवेदहास्यरतीनां भयजुगुप्सयोर्यथासम्भवमन्यतरस्य च द्रव्यमपकृष्य स १२-इदं पुनरसंख्यातलोकेन खण्डयित्वा एकभागमुदयावल्यां दत्त्वा स १२ - ७ओ ७ ओ=a तबहुभागमुदयावलीबाह्यप्रथमसमयादारभ्यान्तरायामे द्वितीयस्थितौ च 'दिवडढगणहाणिभाजिदे' इत्यादिविधानेनविशेषहीनक्रमेण ददाति उदयरहितानां नपुंसकवेदादीनां मोहप्रकृतीनां द्रव्यमपकृष्य स १२- उदयावलि ७ ओ बाह्यनिषेकेषु अन्तरायामे द्वितीयस्थितौ च पूर्वोक्तविधानेन विशेषहीनक्रमेण प्रतिनिपेकं ददाति । अनेन विधानेन चारित्रमोहस्यान्तरं पूरयतीत्यर्थः ।।३०९।। __ सचं०-सो देव असंयत जीव प्रथम समयविषै उदयरूप जो अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान संज्वलनरूप जे क्रोधादि च्यारि कषाय तिनविषै कोई एक कषाय अर पुरुषवेद १ हास्य रति २ अर भय जुगुप्साविषै यथासम्भव प्रकृति जे उदयरूप पाइए हैं तिनके द्रव्यकों अपकर्षण भागहारका भाग देइ तहाँ एक भागकौं ग्रहण करि ताकौं असंख्यातलोकका भाग देइ एक भागकौं उदयावलीविषै दीजिए है अर अवशेष बहुभागकौं उदयावलीतैं बाह्य प्रथम निषेकतें लगाय अवशेष अंतरायामविषै वा अंतरायामके उपरिवर्ती द्वितीय स्थितिविषै 'दिवड्ढगुणहाणिभाजिदे पढमा' इत्यादि विधानतें चय घटता क्रमकरि दीजिए है । बहुरि उदय रहित जे नपुसक वेदादिक मोहकी प्रकृति तिनके द्रव्यकौं अपकर्षणकरि उदयावलीविषै न दीजिए है उदयावलीत बाह्य अंतरायाम वा उपरितन स्थिति ही विषै चय घटता क्रमकरि दोजिए है । इस विधानकरि चारित्र मोहका अंतरकौं पूरै है । अंतर करनेविषै निषेकनिका अभाव कीया था तिनविषै उपशम काल व्यतीत भएँ पीछ जे अवशेष अंतररूप निषेक रहैं तिनविषै इहाँ द्रव्यका निक्षेपण करि तिनका सद्भाव करै है। इहाँ गुणश्रेणिका असंयतविषै अभाव जानना ॥३०९।। अथोपशमनाद्धाक्षयनिबन्धनं प्रतिपातं प्रारम्भमाण इदमाह अद्धाखए पडतो अधापवत्तो त्ति पडदि हु कमेण । सुझंतो आरोहदि पडदि हु सो संकिलिस्संतो॥३१०।। १. पढमसमएण चेव जाणि उदीरिज्जति कम्माणि ताणि उदयावलियं पवेसिदाणि, जाणि ण उदीरिज्जति ताणि वि ओकडिडयण आवलियबाहिरे णिक्खित्ताणि । ता० म०, प० १८९१ । २. जो उवसामणक्खएण पडदि तस्स विहासा। केण कारणेण पडिवददि अवट्रिदपरिणामो संतो। सूणु कारणं, जघा अद्धाक्खएण सो लोभे पडिवदिदो होइ । ता० मु०,१० १८९१-९२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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