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________________ २६६ लब्धिसार आगे पूर्वोक्त अर्थका उपसंहार करें हैं स० चं०-पुरुष वेदादिकनिका समय घाटि आवलीमात्र निषेकनिका द्रव्य उच्छिष्टावलीरूप है सो क्रोधादि सूक्ष्म कृष्टि पर्यंतनिके जे उदयरूप निषेकतै लगाय प्रथम स्थितिके निषेकनिकी साथि तद्रूप परिणमिकरि पक्ष्यति कहिए उदयरूप होसी। पुरुषवेदके उच्छिष्टमात्र निषेक रहे ते तो संज्वलन क्रोधकी प्रथम स्थितिविष तद्रूप परिणमि उदय हो हैं । तैसे ही संज्वलन क्रोधका संज्वलन मानविणे इत्यादि क्रमते बादर लोभका उच्छिष्टावलीके निषेक सूक्ष्म कृष्टिविर्षे तद्रूप परिणमि उदय हो हैं । सो पूर्वं वर्णन कीया ही है ॥३०॥ विशेष-पुरुषवेद, क्रोध, मान, माया और लोभ इनका जो उस-उस स्थानमें एक समय कम दो आवलिप्रमाण नवकद्रव्य शेष रहता आया है सो वह क्रमसे क्रोध, मान, माया, लोभ और कृष्टिकी प्रथम स्थितिके कालमें समय-समय असंख्यातगुणा-असंख्यातगुणा उपशमित होता है। उदाहरणार्थ--पुरुषवेदका एक समय कम दो आवलिप्रमाण नवक समयप्रबद्ध क्रोधकी प्रथम स्थितिके कालमें समय-समयमें उपशमको प्राप्त होता है। ऐसेही आगे भी जानना चाहिये । पुरिसादो लोहगयं णवक समऊण दोणि आवलियं । उवसमदि हू कोहादीकिट्टीअंतेसु ठाणेसु' ।।३०२।। पुरुषात् लोभगतं नवकं समयोने द्वे आवलिके। उपशाम्यति हि क्रोधादिकृष्टय तेषु स्थानेषु ॥३०२॥ सं० टी०-वेदादीनां लोभपर्यन्तानां समयोनद्वयावलिमात्रनवकबन्धसमयप्रबद्धद्रव्यं क्रोधादिकृष्टिपर्यन्तोपशमनकालेषु प्रतिसमयमसंख्यातगुणितक्रमेणोपशमयति । सूक्ष्मकृष्टिप्रथमस्थिती आवलिद्वये अवशिष्टे आगालप्रत्यागालव्युच्छेदो भवति । समयाधिकावलिमात्रेऽवशिष्टे पूर्ववज्जघन्योदीरणा भवति उच्छिष्टावलिमात्रनिषेकाश्च स्वस्थाने एव कर्मरूपतया परिणम्य गलन्ति ॥३०२॥ स० चं०-पूरुषवेद आदि लोभ पर्यंतनिका समय घाटि दोय आवलीमात्र नवक समयप्रबद्धनिका द्रव्य है सो क्रोधादिक कृष्टिपर्यंतके प्रथम स्थितिके कालनिविषै समय समय असंख्यातगुणा क्रम लीए उपशमै है । सो भी पुरुषवेदका नवक समयप्रबद्ध संज्वलन क्रोधकी प्रथम स्थितिका कालविर्षे उपशमै है इत्यादि पूर्वं वर्णन कीया ही है । बहुरि सूक्ष्म कृष्टिका प्रथम स्थिति विर्ष दोय आवली अवशेष रहै ताकी आगाल प्रत्यागाल क्रियाका व्युच्छेद हो है। अर समय अधिक आवलीमात्र अवशेष रहैं पूर्वोक्तवत् जघन्य उदीरणा हो है । अर उच्छिष्टावलोमात्र निषेक अवशेष रहे ते अपने रूप ही विषै उदयरूप परिणमि निर्जरै हैं ऐसे सूक्ष्मसाम्परायका अंत समयविर्षे सर्व कृष्टि द्रव्यकौं उपशमाय अनंतर समयविष उपशांतकषाय हो है ॥३०२॥ एवं सूक्ष्मसांपरायचरमसमये सर्वकृप्टिद्रव्यमुपशमय्य तदनन्तरसमये उपशांतकषायो भवतीत्याह उवसंतपढमसमये उवसंतं सयलमोहणीयं तु । मोहस्सुदयाभावा सव्वत्थ समाणपरिणामो ॥३०३।। १. जे दोआवलियबंधा दुसमयूणा ते वि उवसामेदि । वही पृ० ३२४ । २. से काले सव्वं मोहणीयमुवसंतं। तदो पाए अंतोमुहुत्तमुवसंतकसायवीदरागो। सव्विस्से उवसंतदाए अवट्टिदपरिणामो। वही पृ० ३२६-३२७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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