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सूक्ष्मसाम्पराय में स्थितिबन्ध आदिका विचार
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असंख्यातगुणा द्रव्यकों उपशमावे है । ऐसें तृतीयादि अंत पर्यंत समयनिविषै असंख्यातगुणा क्रम or द्रव्य उपशमावे है । तहाँ अंत समयविषै एक घाटि सूक्ष्मसांपराय कालका समय प्रमाण मात्रवार असंख्यातका गुणकार कीएँ जो अंत फालिका द्रव्य भया ताकौं उपशमाव है । बहुरि समय घाटि दोय आवलीमात्र संज्वलन लोभके नवक समयप्रबद्धन उपशमे थे तिनिका द्रव्यकौं सूक्ष्मसां परायका प्रथम समयत लगाय समय समय प्रति असंख्यातगुणा क्रम लीए उपशमावै है । बहुरि सूक्ष्मसां परायका अंत समयविषै आयु मोह विना छह कर्मनिका जघन्य स्थितिबंध हो है ॥२९९||
अथ तत्स्थितिबंधविशेषनिर्णयार्थमाह
अंतोमुहुत्तमेतं घादितियाणं जहण्णठिदिबंधो ।
दुग वेयणीये सोलस चउवीस य मुहुत्ता' ॥ ३००॥
अन्तमुहूर्तमात्रं घातित्रयाणां जघन्यस्थितिबंध: । नामद्विकवेदनीये षोडश चतुविंशश्च मुहूर्ताः ॥३००॥
सं० टी० - सूक्ष्म सांपरायचरमसमये त्रयाणां घातिकर्मणां ज्ञानदर्शनावरणांतरायाणां जघन्यस्थितिबन्त्रोंऽतर्मुहूर्तमात्रः, नामगोत्रयोः षोडशमुहूर्तप्रमितः, सातवेदनीयस्य चतुर्विंशतिमुहूर्तमात्रः स्थितिबन्धो भवति । ये पूर्वमुच्छिष्टावलिमात्रनिषेकाः बादरसंज्वलनलोभस्य स्पर्धकगतास्त्यक्तास्ते च पूर्वोक्तस्थितोक्तसंक्रमविधानेन कृष्टिरूपतया परिणम्योदयमागच्छन्ति ॥ ३०० ॥
सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयमें कर्मोंके स्थितिबन्धका निर्देश
स० चं० -तहां तीनि घातियानिका अंतर्मुहूर्त, नाम गोत्रका सोलह मुहूर्त, साता वेदनीयका चौबीस मुहूर्तमात्र जघन्य स्थितिबंध हो है । इहां उपशम श्रेणीकी अपेक्षा जघन्य स्थितिबंध कह्या है । बहुरि जे पूर्वे बादरलोभके उच्छिष्टावलीमात्र निषेक रहे थे ते पूर्वोक्त थिउक्क संक्रम विधान करि कृष्टिरूप परिणमि उदय आये हैं ||३०० ॥
अथ पूर्वोक्तार्थोपसंहारं गाथाद्वयेनाह
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पुरिसादीणुच्छि समऊणावलिगदं तु पच्चिहिदि । सोपमदा कोहादी किट्टियंता ||३०१ ॥
पुरुषादीनामुच्छिष्टं समयोनावलिगतं तु पक्ष्यति । स्वोदय प्रथम स्थितिना क्रोधादिकृष्टतानाम् ॥३०१ ॥
सं० टी० - पुंसवेदादीनां समयोनावलिमात्रनिषेकद्रव्यमुच्छिष्टावलिसंज्ञं क्रोधादिसूक्ष्मकृष्टि पर्यन्तानां स्वोदय प्रथम स्थितिनिषेकैः सह तद्रूपेण परिणम्य पक्ष्यति - उदेश्यतीत्यर्थः || ३०१ ||
१ : चरिमसमयसुहुमसांपराइस्स णाणावरण- दंसणावरण-अंतराइयाणमंतोमुहुत्तिओ ट्ठदिबंधो । नामा-गोदाणं ट्ठिदिबंधो सोलस मुहुत्ता । वेदणीयस्स ट्ठिदिबंधो चउवीस मुहुत्ता । वही पृ० ३२५-३२६ । २. जा उदयावलिया छंडिदा सा त्थिवक्कसंक्रमेण किट्टीसु विपच्चिहिदि । वही पृ० ३२४ |
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