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________________ सूक्ष्मकृष्टियोंके उदयादिके सम्बन्धमे विचार २६१ कृष्टि हैं ते अनुदय रूप हैं। इनके परमाणू अनुभाग घटनेतें बीचिकी कृष्टिरूप परिणमि उदय हो हैं । ऐसे ही यथार्थ कथन समझना ।।२९७।। विशेष---सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें कहाँ किन कृष्टियोंका वेदन होता है इसे स्पष्ट करते हुए श्री जयधवलामें बतलाया है (१) सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयमें उपशामक जीव नीचे और ऊपरकी असंख्यातवें भाग प्रमाण कृष्टियोंको छोड़कर शेष सब कृष्टियोंका प्रथम समयमें वेदन करता है। सब कृष्टियोंमेंसे प्रदेशपुंजके असंख्यातवें भागका अपकर्षण कर वेदन करता हआ मध्यम कृष्टिरूपसे वेदन करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इसी विषयको स्पष्ट करते हुए आगे बतलाया है (२) किट्टीकरणके कालके भीतर प्रथम समय और अन्तिम समयको छोड़कर शेष समयोंमें जिन कृष्टियोंको किया है वे सभी सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयमें उदीर्ण हो जाती हैं यह सब सदृशधनको लक्ष्यमें रखकर कहा है, अन्यथा उन सभीका प्रथम समयमें पूरी तरहसे उदीर्ण होनेका प्रसंग आता है, परन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि उनमें अपकर्षण भागहारका भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त होता है उतने ही सदृश धनवाले परमाणुपुंजका अपकर्षण होकर उदय देखा जाता है। (३) तथा कृष्टिकरणके प्रथम समयमें जो कृष्टियाँ की गईं उनमेंसे उपरिम असंख्यातवें भाग प्रमाण कृष्टियाँ सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयमें उदीर्ण हो जाती हैं । किन्तु यह कथन सदृश धनको लक्ष्यमें रखकर किया है, क्योंकि एक समयमें उनके सब कृष्टियोंकी उदीरणा होना सम्भव नहीं है। इसलिये प्रथम समयमें जितनी कृष्टियाँ की गईं उनमें पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देकर जो एक भाग लब्ध आवे उतनी कृष्टियाँ सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयमें उदीर्ण होती हैं। (४) तथा अन्तिम कृष्टिकरणके अन्तिम समयमें जो कृष्टियाँ की गईं उनमें पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे तत्प्रमाण जघन्य कृष्टिसे लेकर अधस्तन ख्यिातवें भागप्रमाण कृष्टियोंको छोड़कर शेष सभी कृष्टियाँ सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयमें उदीर्ण होती हैं। इससे सिद्ध हुआ कि सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीव अपने प्रथम समयमें सभी कृष्टियोंके असंख्यात बहुभागप्रमाण कृष्टियोंका वेदन करता है । इतनी विशेषता है कि कृष्टिकरण के प्रथम समयमें जो कृष्टियाँ की जाती हैं उनमेंसे नहीं वेदे जानेवाले उपरिम असंख्यातवें गके भीतरकी कृष्टियाँ अपकर्षण द्वारा अनन्तगुणी हीन होकर मध्यम कृष्टिरूपसे वेदी जाती हैं। तथा कृष्टिकरणके अन्तिम समयमें रची गई कृष्टियोंमेंसे जघन्य कृष्टि से लेकर नहीं वेदे जानेवाले अधस्तन असंख्यातवें भागके भीतरकी कृष्टियाँ अनन्तगुणी हीन होकर मध्यम कृष्टिरूपसे वेदी जाती हैं। (५) सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके दूसरे समयमें जो कृष्टियाँ प्रथम समयमें उदीर्ण हुई उनके सबसे उपरिम भागमें स्थित कृष्टिसे लेकर नीचे असख्यातवें भागको छोड़कर अधस्तन बहुभाग प्रमाण कृष्टियोंका वेदन करता है। तथा नीचे प्रथम समयमें अनुदीर्ण हुई कृष्टियोंके अपूर्व असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियोंका वेदन करता है। प्रथम समयमें जितनी कृष्टियोंका वेदन होता है उनसे दूसरे समयमें वेदी जानेवाली कृष्टियाँ असंख्यातवें भागप्रमाण हीन हैं। इसी प्रकार तीसरे समयसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समय तक जानना चाहिये । हिन्दी टीकामें इसी तथ्यको अंक संदृष्टिद्वारा स्पष्ट किया हो है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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