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________________ २६० लब्धिसार कृतानुदयकृष्टीनामधिकागमननिमित्तपल्यासंख्यातभागहारस्य लघुसंदृष्ट्यर्थं पञ्चाङ्कः स्थापितः । तत्र प्रथमचरमसमयकृतानुदयकृष्टिषु विभंजनक्रमोऽर्थसंदृष्युक्तप्रकारेण कर्तव्यः ।।२९७।। सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयमें किन कृष्टियोंका उदय होता है इसका निर्देश --- स० चं०--सूक्ष्म कृष्टि करनेके कालका प्रथम समयविष अर अंतसमयविष कीनी जे कृष्टि तिनकौं पल्यका असंख्यातवां भागका भाग दीएँ एक भागमात्र कृष्टि हैं ते अपने स्वरूप करि उदय न हो हैं । अन्य कृष्टिरूप परिणमि उदय हो है। बहुरि अवशेष पल्यका असंख्यातवां भागका भाग दीएँ बहु भागमात्र प्रथम समय अंत समयविषै कीनी कृष्टि अर द्वितीयादि चरम समयविषै कीनी सर्व कृष्टि ते अपने स्वरूप ही करि उदय हो है। प्रथम समयविषे जे कोनी कृष्टि तिनिविषै तौ अंत कष्टि” लगाय पल्यका असंख्यातवां भागका भाग दीएँ एक भागमात्र कष्टि उदयकौं प्रा ते अपने स्वरूपकौं छोड़ि अपनी अनुभाग शक्ति” अनंतगुणी घाटि शक्तिरूप परिणमि उदय आवै हैं । बहुरि अंत समयविषै कोनी जे कृष्टि तिनविष जघन्य कृष्टित लगाय पल्यका असंख्यातवां भागका भाग दीए एक भागमात्र कृष्टि उदय हो हैं। ते अपने स्वरूपकौं छोड़ि अपनी शक्तितै अनंतगुणी शक्तिरूप परिणमि मध्यम कृष्टिरूप होइ उदय आवै हैं। ऐसा तात्पर्य है। तहाँ समस्त कृष्टिनिका जो प्रमाण ताकौं पल्यका असंख्यातवां भागका भाग दोएँ बहुभागमात्र कृष्टि तौ अपने स्वरूप ही करि उदय हो हैं । अवशेष एक भागकौं पल्यका असंख्यातवां भागका भाग देइ तहाँ एक भागकौं जदा स्थापि बहभागके दोय खंड करने। तहाँ एक खंड प्रमाण तो अंत समयसम्बन्धी अनुदय कृष्टि है। अर एक खंडविर्ष जुदा राख्या एक भाग मिलाएँ जो प्रमाण होइ तितनी प्रथम समय सम्बन्धी अनुदय कृष्टि है। ऐसें कष्टिकरण कालका अंत समयविर्ष कीनी अनुदय कृष्टि स्तोक हैं, तातै ताका प्रथम समयविष कोनी अनुदय कृष्टि किछू अधिक हैं । तातें सूक्ष्म सांपरायका प्रथम समयविषै उदय आई कृष्टि असंख्यातगुणी है। इहाँ ऐसा अर्थ जानना-कृष्टिकरणका प्रथम समयविषै कीनी कृष्टि ऊपरि लिखी तहाँ ऊपरि अंत कृष्टि लिखि ताके नीचैं उपांत आदि कृष्टि क्रमतें लिखि नीचे-नीचें जघन्य कृष्टि लिखनी । बहुरि ताके नीचें नीचे द्वितीयादि समयनिविष कीनी कृष्टि भी याही प्रकार लिखनी। बहुरि लिखि नीचे ही नीचें अत समयविष कोनी कृष्टि लिखि तहाँ भी अंत कृष्टि ऊपरि लिखि नीचें उपांत आदि कृष्टि लिखि नीचे ही नीचे जघन्य कृष्टि लिखनी । ऐसैं अंत समयविषै कीनी कृष्टिकी जघन्य कृष्टिनै लगाय प्रथम समयविषै कीनी कृष्टिकी अंत कृष्टि पर्यंत कृष्टि लिखी। तिनिविर्षे ऊपरि ऊपरि क्रमते द्रव्य तौ एक एक चय प्रमाण घटता है। अर अनुभाग अनंतगणा है। सो सूक्ष्मसांपरायका प्रथम समयविर्षे ऐसे कष्टिरूप परमाणू थीं तिनविष इहां जेता प्रमाण कह्या तितनी ऊपरली वा नीचली कृष्टिनिके परमाणूनिकौं बीचिकी कृष्टिरूप परिणमावै है । अंक संदृष्टिकरि जैसे सब कृष्टिनिका प्रमाण एक हजार ताकौं पल्यका असंख्यातवाँ भागका प्रमाण पाँच ताका भाग दोए बहुभागमात्र आठसै बीचिकी कृष्टि हैं ते तो अपने रूप ही उदय हो हैं। एक भाग दोयसै ताकौं पाँचका भाग दीए चालीस जुदा स्थापि अवशेष एकसौ साठिके दोय भाग कीएँ एक भागमात्र असो तौ अंत समयविष कीनी कृष्टिकी जघन्य कृष्टिनै लगाय जे नीचेकी कृष्टि हैं ते अनुदयरूप हैं। इनके परमाणू अनुभाग बंधनेतै बीचकी कृष्टिरूप परिणमि उदय हो हैं। बहुरि एक भागविषै जुदा राख्या चालीस मिलाएँ एकसौ बीस सो इतनी प्रथम समयविष कीनी कृष्टिकी अंतकृष्टितै लगाय उपरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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