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________________ २५५ वहाँ अन्य कार्यविशेषोंका निर्देश करणके अंतसमयविषै स्थितिबंध कहे ते क्षपक अनिवृत्ति करणके अंत समयके स्थितिबंधतें दूणे हैं ।।२९३।। विशेष-गाथा का प्रथम पाद 'किट्टीयद्धाचरिमे' पाठ है। उसका प्रकृतमें 'वादरसाम्परायके अन्तिम समयमें' ऐसा अर्थ समझना चाहिये । शेष कथन सुगम है । अथ संक्रमकालावधिनिर्देशार्थमाह विदियद्धा परिसेसे समऊणावलितियेसु लोभदुगं । सट्टाणे उवसमदि हु ण देदि संजलणलोहम्मि' ।।२९४।। द्वितीयाधं परिशेषे समयोनावलित्रिकेषु लोभद्विकम् । स्वस्थाने उपशाम्यति हि न ददाति संज्वलनलोभे ॥२९४।। सं०टी०-संज्वलनलोभप्रथमस्थितिद्वितीयाः समयोनावलित्रयेऽवशिष्टे अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानलोभद्वयद्रव्यं संज्वलनलोभे न संक्रामति । संक्रमणावलिप्रथमसमये एतत्संक्रमणस्य विश्रांतत्वात, किंतु तल्लोभद्रयद्रव्यं स्वस्वस्थाने एवोपशाम्यति । संक्रमणावलौ गतायां प्रथमस्थित्यावलिद्वयेऽवशिष्टे आगालप्रत्यागालौ व्यच्छिन्नौ प्रत्यावलिचरमसमयपयंतमदीरणा वर्तते ।।२९४॥ संक्रमणकालसम्बन्धी अवधिका विचार सं० चं०-संज्वलन लोभकी प्रथम स्थितिका द्वितीयाविषै समय घाटि तीन आवली अवशेष रहैं अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान लोभ है सो संज्वलन लोभविषै संक्रमण नाहीं करै है जातें संक्रमणावलीका प्रथम समयविषै ही इस संक्रमणका विधान भया। तो कहा है ? तिनि दोऊ लोभनिका द्रव्य है सो स्वस्थाने कहिए अपने रूप ही विषै होता संता उपशमै है। बहरि संक्रम क्रमणावली व्यतीत भएं तहां दोय आवली अवशेष रहैं आगाल प्रत्यागालकी भी व्य प्रत्यावली जो द्वितीयावली ताका अंतसमय पर्यंत उदीरणा वते है। इनिका स्वरूप पूर्व कह्या है तैसें जानना ।।२२४|| विशेष-कष्टिकरणके कालमें एक समय कम तीन आवलि कालके शेष रहने पर अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान लोभका संज्वलनलोभमें संक्रम नहीं होता क्योंकि इस समय संक्रमणावलि और उपशमनावलिका पूर्ण होना असम्भव है। इसलिये इनकी स्वस्थानमें ही उपशमनक्रिया होती है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि जब संज्वलन लोभको प्रथम स्थिति काल शेष रह जाता है तब आगाल और प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति हो जाती है। तथा प्रत्यावलिके अन्तिम समयमें लोभसंज्वलनकी जघन्य उदीरणा होती है। अथ लोभत्रयोपशमनावधिनिर्मानार्थमाह बादरलोभादिठिदी आवलिसेसे तिलोहमुवसंत । णवक किट्टि मुच्चा सो चरिमो थूलसंपराओ य२ ।।२९५।। १. तिस्से किट्टीकरणद्धाए तिसु आवलियासु समयूणासु सेसासु दुविहो लोहो लोहसंजलणे ण संकामिज्जदि सत्थाणे चेव उवसामिज्जदि । वही पृ० ३१७।। २. ताधे चेव जाओ दो आवलियाओ समयणाओ एतियमेत्ता लोहसंजलणस्स समयपबद्धा अणवसंता, किटीओ सव्वाओ चेव अणुवसंताओ, तव्वदिरित्तं लोहसंजलणस्स पदेसग्गं उवसंतं, दुविहो लोहो सव्वो चेव वसंतो णवकबंधुच्छिद्रावलियवज्ज। एसो चेव चरिमसमयबादरसापराइयो । वही पृ० ३१८-३१९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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