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________________ [१८] । और उससे अनन्तगुणे अनुभाग से युक्त कर्मका संक्रम होता है किन्तु इतना विशेष जानना चाहिए कि जो अप्रशस्त कर्म है उनका अनुभागोदय अनन्तगुणा हीन होता है और प्रदेशोदय असंख्यातगुणा अधिक होता है । मात्र संक्रम भजनीय है, कारण कि एक काण्डकपात होने तक वह तदवस्थ रहता है। उसके बाद काण्डकके बदलनेपर उसका प्रमाण अनन्तगुणा हीन हो जाता है । इस प्रकार यह जीव सात नोकषायोंका संक्रामक होता है । किन्तु इतनी विशेषता है कि अन्त में पुरुषवेदका जो एक समय कम वो आवलिप्रमाण नवक बन्ध शेष रहता है सो एक तो अपगनवेदी होने के बाद ही उसका नाश करता है। दूसरे जिस समय यह जीव पुरुषवेदके प्राचीन सत्कर्मके साथ छह नोकषायोंका क्षयकर प्रथम समयवर्ती अपगतवेदी होता है उसी समय से यह चार संज्वलनोंके अनुभागका अश्वकर्णकरण कारक होता है । प्रकृतमें अश्वकर्णकरणकी अपवर्तनोद्वर्तनकरण और हिंडोलकरण ये दो संज्ञाएँ होनेका कारण यह है कि संज्वलन क्रोधसे संज्वलन लोभ तकके अनुभागको देखनेपर वह उत्तरोत्तर अनन्तगुणा हीन दिखलाई देता है और संज्वलन लोभसे लेकर संज्वलन क्रोध तकके अनुभागको देखनेपर वह उत्तरोत्तर अनन्तगुणा अधिक दिखलाई देता है । जिस समय यह जीव अनुभागको अपेक्षा अश्वकर्णकरणको प्रारम्भ करता है उस समय काण्डकघातके लिए अनुभाग के जिन स्पर्धकों को ग्रहण करता है वे क्रोधमें सबसे थोड़े होते है तथा मान, माया और लोभ में क्रम से विशेष अधिक होते हैं । तथा घात करनेपर जो अनुभाग स्पर्धक शेष रहते हैं वे लोभमें सबसे कम रहते हैं तथा माया, मान और क्रोधमें अनन्तगुणे शेष रहते हैं । और ऐसा करते समय पूर्व स्पधकों की जमन्य वर्गणासे नीचे नवे अपूर्व स्पर्धकोंकी रचना करता है। यहाँ जिस प्रकार इन अपूर्व स्पर्धकोंकी रचना करता है उसी प्रकार यथा सम्भव वे पूर्व स्पर्धकोंके साथ उदीर्ण भी होते हैं। इसी प्रकार द्वितीयादि समयोंमें भी जानना चाहिए । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि प्रति समय जो अपूर्व स्पर्धक किये जाते हैं वे पूर्वमें किये गये अपूर्व स्पर्धकोंकी अपेक्षा उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे हीन होते है ऐसा होते हुए प्रथम समयसे जिन अपूर्व स्पर्धकोंकी रचना होती है वे क्रोधके सबसे थोड़े होते हैं तथा इनसे मान, माया और लोभके उत्तरोत्तर विशेष अधिक होते हैं । इस प्रकार अश्वकर्णकरण के अन्तिम समय तक अपूर्व स्पर्धकोंकी रचना करता है। यह अश्वकर्णकरणका काल क्रोधवेदकके कालका सधिक तीसरे भागप्रमाण है । तदनन्तर क्रोधादि चारों कपायों सम्बन्धी पूर्व और अपूर्व स्पर्धकोंका अपकर्षण कर कृष्टियोंकी रचना करता है । यहाँ ऐसा समझना चाहिए कि अपकर्षण किये गये द्रव्य में पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे उतना सूक्ष्म कृष्टियों सम्बन्धी द्रव्य है, शेष बहु भागप्रमाण द्रव्य वादर कृष्टियों सम्बन्धी है। क्रोधादि चारों कषायोंमेंसे प्रत्येककी संग्रह कृष्टियों तोन-तीन हैं और अन्तर कृष्टियां अनन्त हैं । यहाँ इतना विशेष जानना कि जो क्रोध कषायके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़ता है उसके क्रोधादि चारों कषायोंकी बारह संग्रह कृष्टियाँ होती हैं । जो मानके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़ता है उसके मानादि तीन कषायोंकी नौ संग्रह कृष्टियाँ होती हैं । जो मायाके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ता है उसके माया और लोभकी छह संग्रह कृष्टियाँ होती हैं और जो लोभके उदयसे श्रेणिपर चढ़ता है उसके एक मात्र लोभकषायकी तीन संग्रह कृष्टियाँ होती हैं । यह हम पहले ही बतला आये हैं कि एक-एक संग्रह कृष्टिकी अन्तर कृष्टियाँ अनन्त होती हैं ये सब लोभसे लेकर क्रोध तक उत्तरोत्तर अनन्तगुणी होती हैं और क्रोधसे लेकर लोभतक अनन्तगुणी हीन होती है। यहाँ इन संग्रह कुटियोंके मध्य तथा नीचेकी अन्तर कृष्टिसे दूसरी अन्तर कृष्टिके मध्य जो अन्तर पाया जाता है उसे क्रमसे संग्रह कृष्यघन्तर तथा कृष्टघन्तर कहते हैं, सो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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