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५८ प्रकृतियोंकी बन्धव्यच्छित्ति हो लेती है उनके अतिरिक्त इस गुणस्थानमें जिन ३६ प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति होती है उनका नाम निर्देश पहले हो कर आये है ।
अपूर्वकरणका काल पूरा होनेपर यह जीव बादरसाम्पराय गुणस्थानमें प्रवेश करता है । इसके प्रथम समय में स्थितिकाण्डक आदि नये प्रारम्भ होते हैं । इसी समयमें अप्रशस्त उपशामना, निधत्ति और निकाचन इन तीन करणों की व्युच्छित्ति होती है । इसके प्रथम समयमें पहला स्थितिकाण्डक विसदृश होता है। इसके आगे सब जीवोंके वे समान होते हैं । प्रथम जघन्य स्थितिकाण्डक पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण होता है तथा उत्कृष्ट इससे संख्यातवें भाग अधिक होता है । शेष सब स्थितिकाण्डक सदृश होते हैं।
आगे स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व क्रमसे घटते हुए जब क्रमकरणकी विधिसे मोहनीयका सबसे कम स्थितिबन्ध होने लगता है। उससे कुछ अधिक तीसिय प्रकृतियोंका उससे कुछ अधिक वीसिय प्रकृतियोंका तथा उससे कुछ अधिक वेदनीय प्रकृतिका बन्ध होने लगता है तब स्थितिसत्त्व भी उसी अनुपातमें घटता जाता है जिसका विशेष खुलासा गाथा ४२७ को टीकामें किया ही है। और इस प्रकार जब पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिबन्ध होता है तब असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा होने लगती है। इसके बाद संख्यात हजार स्थितिबन्ध होनेपर अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यानरूप आठ कषायोंका चार संज्वलन और पुरुषवेदमें संक्रमण करता है । इसके बाद स्थितिबन्धपृथक्त्वके जानेपर दर्शनावरणको स्त्यानगृद्धि आदि तीन निद्राओं और नामकर्मकी नरकगति आदि तेरह प्रकृतियोंका संक्रम करता है। इसके बाद मनःपर्ययज्ञानावरणादि प्रकृतियोंका देशघातिकरण करता है।
तदनन्तर यह जीव हजारों स्थितिकाण्डकोंके व्यतीत होनेपर चार संज्वलन और नौ नोकषायोंकी अन्तरकरण क्रिया सम्पन्न करता है । चार संज्वलन और तीन वेद इनमेंसे जिन दो प्रकृतियोंका उदय होता है उनकी प्रथम स्थिति अन्तर्महर्तप्रमाण और शेष ग्यारह प्रकृतियोंकी एक आवलिप्रमाण प्रथम स्थिति स्थापित करता है। इन प्रकृतियोंके जिन निषेकोंका अन्तर किया जाता है उनकी निक्षेप विधिको उपशमश्रेणिके समान जान लेना चाहिए । अन्तरकरण क्रिया सम्पन्न होनेके अनन्तर समयमें ये सात करण प्रारम्भ हो जाते हैं -१. मोहनीयका एक स्थानीय बन्ध, २. मोहनीयका एक स्थानीय उदय, ३. मोहनीयका संख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध, ४. आनुपूर्वी संक्रम, ५. लोभका असंक्रम, ६. नपुंसकवेदका आयुक्तकरण संक्रम और ७. बन्धके बाद छह आवलिकाल जानेपर उदीरणाका प्रारम्भ । आनुपूर्वी संक्रमके अनुसार नपुंसकवेद और स्त्रीवेदके द्रव्यका पुरुषवेदमें संक्रम, सात नोकषायोंके द्रव्यका क्रोध कषायमें संक्रम, क्रोध संज्वलनका मानसंज्वलनमें संक्रम, मानसंज्वलनका मायासंज्वलनमें संक्रम तथा मायासंज्वलनका लोभसंज्वलनमें संक्रम होने लगता है। मात्र लोभसंज्वलनका अन्य किसी प्रकृति में संक्रम न होकर उसका स्वमुखसे ही क्षय होता है । अन्तरकरण क्रिया सम्पन्न होने के बाद प्रतिलोभ संक्रम नहीं होता।
इसके बाद संख्यात हजार स्थितिबन्धोंके जानेपर नपुंसकवेदका पुरुषवेदमें संक्रम करता है । यहाँ पुरुषवेद आदि जिस प्रकृतिका बन्ध होता है उसके बन्धद्रव्यसे उदयद्रव्य असंख्यातगुणा और उदयद्रव्यसे संक्रम द्रव्य असंख्यातगुणा जानना चाहिए। यतः प्रदेशबन्ध योगोंके अनुसार होता है और योगोंमें चार प्रकारकी वृद्धि, चार प्रकारको हानि और अवस्थान देखा जाता है तदनुसार प्रदेशबन्ध भी चार प्रकारकी वृद्धि, चार प्रकारकी हानि और अवस्थानकी अपेक्षा भजनीय जानना चाहिए। इसके बाद क्रमसे स्त्रीवेद और सात नोकषायोंका संक्रामक होता है। यहाँ इतना और जानना चाहिए कि जितने अनुभागको लिए हुए कर्मका जितना बन्ध होता है उससे अनन्तगुणे अनुभागके साथ कर्मका उदय होता है
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