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________________ [ १६ ] ज्ञानावरणादिकी गुणश्रोणिके समान गुणश्रेणि करता है । लोभके उदयसे चढ़कर गिरे हुए जीवके एक मात्र लोभका ही उदय होता है, इसलिए इसके प्रारम्भसे ही अन्य कर्मों के समान गलितशेष गुणश्रेणी होती है। मान. माया और लोभके उदयसे चढकर गिरा हआ जीव क्रमसे नौ, छह और तीन कषायोंकी गलितावशेष गुणश्रोणि करता है। जिस कषायके उदयसे चढ़कर गिरा है उस कषायका उदय होनेपर अपकर्षणकर अन्तरको पूरा करता (भरता) है। स्त्रीवेदके उदयसे चढ़ा हुआ जीव अपगतवेदी होनेके बाद पुरुषवेद और छह नोकषायोंको एक साथ उपशमाता है। नपुंसकवेदके उदयसे श्रेणिपर चढ़ा हुआ जीव नपुंसकवेदका अन्तर करके पुरुषवेदके उदयसे चढ़े हुए जीवके जिस कालमें नपुंसक वेदका उपशम होता है उस कालके भीतर नपुंसकवेदका उपशमन करके पुरुषवेदके उदयसे चढ़े हुए जीवके जिस कालमें स्त्रीवेदका उपशम होता है उस कालके अन्तमें दोनों वेदोंको युगपत् उपशमाता है। इसके बाद पुरुषवेद और छह नोकषायोंको उपशमाता है। क्षपिक चारित्रलब्धि (क्षापकश्रेणि) चारित्रमोहकी क्षपणाका विचार इन अधिकारों द्वारा किया गया है-१. अधःप्रवृत्तकरण, २. अपूर्वकरण, ३. अनिवृत्तिकरण, ४. बन्धापसरण, ५. सत्त्वापसरण, ६. क्रमकरण, १. क्षपणा, ८. देशघातिकरण, ९. अन्तरकरण, १०. संक्रमण, ११. अपूर्व स्पर्धककरण, १२. कृष्टिकरण, और कृष्टि अनुभवन । इन अधिकारों से अधप्रवृत्तकरण आदि तीन करणोंका लक्षण पूर्ववत् जानना । अधःप्रवृत्तकरणमें गुणश्रेणिरचना, गुणसंक्रम, स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात ये चार कार्य नहीं होते । मात्र प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धिको प्राप्त कर प्रशस्त कर्मोंका चतुःस्थानीय और अप्रशस्त कर्मोंका द्विस्थानीय अनुभागबन्ध करता है । तथा प्रत्येक अन्तमुहूर्तमें उत्तरोत्तर प्रत्येक में संख्यानवें भागप्रमाण स्थितिबन्ध कम करके स्थितिबन्ध करता है । इस करण के प्रथम समय में होनेवाले स्थितिबन्धसे उसके अन्तिम समयमें संख्यातगुणा हीन स्थितिबन्ध होता है। ___ अपूर्वकरण के प्रथम समयमें गुणश्रेणि, गुण संक्रम, स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात और अन्य स्थितिबन्ध आरम्भ करता है । यहाँ गुणधेणिका आयाम अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय और क्षीण कषाय गुणस्थानोंसे कुछ अधिक होता है । यह गलितावशेष गुणश्रेणि है । अपूर्वकरण के प्रथम समयसे ही प्रति समय अनन्तगुणित क्रमसे द्रव्यका अपकर्षणकर गुणश्रोणि की रचना करता है । जो अप्रशस्त अबन्ध प्रकृतियां हैं, असंख्यातगुणे क्रमसे उनके द्रव्यको अपकर्षणकर बंधनेवाली अपनी जातिकी प्रकृतियोंमें संक्रमित करता है । जघन्य अपवर्तनाका प्रमाण एक समय कम आवलिके एक समय अधिक विभाग प्रमाण है । जिन कर्मोंका संक्रमण या उत्कर्षण करता है वे एक आवलि काल तक तदवस्थ रहते हैं। उसके बाद वे भजितव्य हैं। किन्तु जिस कमपुजका आकर्षण होता है उसका तदनन्तर समयमें क्रियान्तर होना सम्भव है। अग्रस्थितिके कर्मपुजके उत्कर्षण अपकर्षण का विशेष खुलासा मूलमें किया ही है, इसलिए इसे वहाँसे जान लेना चाहिये। अपूर्वकरणके प्रथम समय में जघन्य स्थितिकाण्डक पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण होता है और उत्कृष्ट उससे संख्यातगुणा होता है, अपूर्वकरण के थम समयमें स्थितिकाण्डक, स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्वका जितना प्रमाण होता है, उसके अन्तिम समयमें वे संख्यातगुण हीन होते है । अपूर्वकरण के प्रथम समयमें स्थितिबन्ध अन्तःकोटाकोटि प्रमाण होता है तथा स्थिति सत्त्व उससे संख्यातगुणा होता है । एक एक स्थितिकाण्डकघातके भीतर हजारों अनुभागकाण्डकघात होते हैं । अशुभ प्रकृतियोंके अनुभागकाण्डकका प्रमाण अनन्त बहुभागप्रमाण है । किन्तु प्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभागका घात नहीं होता। इस गुणस्थानके पहले, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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