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________________ लोभसे लेकर क्रोधपर्यन्त स्वस्थान अन्तर अनन्तगुणे क्रमको लिए हए है। उससे बादर संग्रह कृष्टियोंका अन्तर अनन्तगुणा है । सो इसका विशेष विचार मूलमें किया हो है, इसलिए इसे वहाँसे जानना। ऐसा नियम है कि प्रति समय यह जीव संग्रह कृष्टियोंके नीचे नई पूर्व कृष्टियोंको करता है और पूर्व में की गई कृष्टियोंके पार्श्वमें उनके समान अनुभागवाली कृष्टियोंको भी करता है। जो अनन्तगणी हीन शक्तिवालीं कृष्टियाँ नीचे की जाती हैं उनकी अधस्तन कृष्टि संज्ञा है और जो पार्श्वमें पूर्व कृष्टियोंके समान शक्तिवाली की जाती है उनकी पार्श्व कृष्टि संज्ञा है।। इस विधिसे दूसरे समयमें जो संग्रह कृष्टियाँ और उनके मध्य अन्तर संग्रह कृष्टियाँ की जाती हैं वे सब मिलकर तेईस प्रकारकी हो जाती हैं तथा इनके अतिरिक्त जो अन्तर कृष्टियाँ होती हैं इन सबमें होनेवाले प्रदेश विन्यासके क्रमसे ऊँट की रचना बन जाती है। जैसे ऊँटकी पीठ पिछले भागमें ऊँची होकर पुनः मध्यमें नीची होती है तथा आगे भी नीच-उच्चरूपसे जाती है उसी प्रकार यहाँ भी प्रदेशपुंज आदिमें बहुत पुनः थोड़ा होता है तथा पुनः सन्धियोंमें थोड़ा बहुत होकर निक्षिप्त होता है, इसलिए दिये जानेवाले प्रदेशपुंजकी श्रेणि उष्ट्रकूटके समान हो जाती है। यहाँ दूसरे समयमें जैसे कृष्टियोंमें दिये जानेवाले प्रदेशपुंजके तेईस उष्ट्रकूट बन जाते हैं उसी प्रकार आगे भी कृष्टिकरणके सभी कालोंमें जानना चाहिए। किन्तु सर्वत्र सब मिलाकर द्रव्यको देखने पर वह लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी नवीन जघन्य कृष्टि से लेकर क्रोधकी तीसरी संग्रह कृष्टिकी पुरातन अन्न कृष्टितक अतन्नवाँ थाग घटता क्रय लिए दिखलाई देता है। कृष्टियों और स्पर्धकोंमें यह अन्तर है कि प्रथम कृष्टिसे लेकर अन्त कृष्टि तक प्रत्येक कृष्टिका अनुभाग उत्तरोत्तर अनन्तगुणा है। परन्तु स्पर्धकोंमें प्रथम वर्गणासे लेकर अन्तिम वर्गणा तक वह विशेष अधिक, विशेष अधिक पाया जाता है। यह जीव जिस कालमें कृष्टियोंकी रचना करता है उस कालमें उसके पूर्व और अपूर्व स्पर्धकोंका उदय रहता है और इस प्रकार जब क्रोध संज्वलनकी प्रथम स्थितिमें उच्छिष्टावलिमात्र काल शेष रहता है तब कृष्टिकरणके कालको समाप्त करता है। तदनन्तर समयमें वह क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिकी प्रथम स्थिति करके मध्यको कृष्टियोंको वेदता है। वहाँ क्रोधके उच्छिष्टावलिमात्र जो निषेक शेष रहे उन्हें तो वह परमखसे वेदता है और जो दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध शेष रहता है उसे कृष्टिरूपसे परिणाम कर नाश करता है। कृष्टियोंको रचनेवाला तो लोभसे लेकर क्रोधतक क्रम लिए कृष्टियोंकी रचना करता है, किन्तु कृष्टियोंका वेदक पहले क्रोधकी संग्रहकृष्टिको वेदना है, फिर मान, माया और लोभकी संग्रहकृष्टियोंको वेदता है । उसमें भी वेदनकालमें जो क्रोधकी तीसरी संग्रहकृष्टि है उसे पहले वेदता है। उसके बाद दूसरी और पहली संग्रह कृष्टियोंको वेदता है। इस प्रकार क्रोधकी तीसरी कृष्टिको वेदता हुआ यह जीव प्रथम समयमें सर्व कृष्टियों के असंख्यातवें भागका नाश करता है, दूसरे समयमें उसके असंख्यातवें भागका नाश करता है। इस प्रकार उपान्त्य समय तक जानना चाहिए । यहाँ कौन कृष्टियाँ बन्ध-उदयसे रहित हैं, किन कृष्टियोंका उदय होता है और कौन कृष्टियाँ बन्ध उदय दोनों सहित हैं आदि, सो इसका विचार मूलसे कर लेना चाहिए। कृष्टियोंके संक्रमणके विषयमें यह नियम है कि विवक्षित कषायकी प्रथमादि संग्रह कृष्टियोंका द्रव्य अपनी अगनी संग्रहकृष्टियोंमें और अगले कषायकी प्रथय संग्रहकृष्टिमें संक्रामित होता है। मात्र लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिका द्रव्य लोभकी द्वितीय और तृतीय संग्रहकृष्टियोंमें तथा लोभकी द्वितीय संग्रह कृष्टिका द्रव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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