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________________ २३६ लब्धिसार द्वितीयाका प्रथम समयविषै संज्वलन लोभका अनुभाग सत्त्ववियु अपकर्षण करि सूक्ष्म कृष्टि करिए है । सो विधान कहिए है ___ संज्वलन लोभका अनुभागका सत्त्वविर्षे जघन्य अनुभाग शक्ति सहित जो परमाणू ताविष अनुभागके अविभाग प्रतिच्छेद जीवराशितै अनंत गुणे हैं। सो याकौं जघन्य वर्ग कहिए। इतने इतने अविभाग प्रतिच्छेद सहित जेते कर्म परमाणुरूप वर्ग पाइए तिनके समूहका नाम प्रथम वर्गणा है सो संज्वलन लोभके सत्तारूप सर्व परमाणू तिनकौं अनुभाग सम्बन्धो किछू अधिक ड्योढ गुणहानिका भाग दीएं जो प्रमाण आवै तितने प्रथम वर्गणाविषै परमाणू हैं। याकौं अनुभाग सम्बन्धी दो गुणहानिका भाग दीए विशेषका प्रमाण आवै है। विशेषकौं दोगुणहानिकरि गुणें प्रथम वर्गणाविषै परमाणूनिका प्रमाण आवै है। इस प्रथम वर्गणाकौं साधिक ड्योढ गुणहानिकरि गुणें संज्वलन लोभका सर्व सत्त्व द्रव्यका प्रमाण हो है । सो या द्रव्यकौं अपकर्षणकरि अनुभागकी सूक्ष्म कृष्टि करै है। सो जघन्य स्पर्धककी लता समान प्रथम वर्गणाविषे अविभाग प्रतिच्छेद हैं तिनकौं नीचें तितने भी अनन्त गुणा घाटि अनुभागके अविभाग प्रतिच्छेदरूप सूक्ष्म कृष्टि हो है। तिन सूक्ष्म कृष्टिनिका प्रमाण जो एक स्पर्धकविर्ष वर्गणानिका प्रमाण ताके अनन्तवे भागमात्र जानना। पहले अन्तर्महर्तकालकरि निपजै ऐसा अनुभाग कांडक घात होता था तीहिंविना अब समय समय कृष्टि घात करनेका प्रारम्भ करै है ऐसा अर्थ जानना ।। २८३ ॥ विशेष-.-प्रकृतमें लोभकषायका जितना वेदककाल है उसमेंसे अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समय तक यह जीव बादरलोभका वेदन करता है। बादरलोभ स्पर्धकगत होता है । उसके सूक्ष्म करनेकी प्रक्रियाका नाम ही सूक्ष्मकृष्टिकरण कहलाता है। उपशमश्रेणिमें स्पर्धकगत लोभका बादर कृष्टिकरण न होकर सीधा सूक्ष्मकृष्टिकरण होता है। अब देखना यह है कि अनिवृत्तिकरणके किस कालमें यह सूक्ष्मकरण क्रिया सम्पन्न होती है। इसीका निर्देश करते हुए प्रकृतमें यह बतलाया गया है कि बादरलोभका जितना वेदनकाल है उसके प्रथमार्धमें मात्र स्पर्धकगत लोभका ही वेदन होता है और द्वितीयार्धमें स्पर्धकगतलोभका वेदन करते हुए जघन्य स्पर्धकगतलोभके द्वारा कृष्टीकरणकी क्रिया सम्पन्न होती है । आशय यह है कि लोभसंज्वलनका जो जघन्य स्पर्धकगत अनभाग है उसे अपकर्षण द्वारा अनन्तगणाहीन करके सक्ष्मकृष्टियोंकी रचना करता है । यहाँ अनुभागका काण्डकघात न होकर प्रतिसमय उसकी उक्त विधिसे अपवर्तना होती है । अथ द्वितीयार्थप्रथमसमये कृष्ट्यर्थमपकृष्टद्रव्यस्य निक्षेपविधानार्थमिदमाह-- ओक्कट्टिदइगिभागं पल्लासंखेज्जखंडिदिगिभागं । देदि सुहुमासु किट्टिसु फड्डयगे सेसबहुभागं' ।। २८४ ॥ अपकर्षितकभागं पल्यासंख्येयखंडितैकभागम् । ददाति सूक्ष्मासु कृष्टिषु स्पर्धके शेषबहुभागम् ।। २८४ ॥ १. ओकड्डिदसयलदव्वस्सासंखेज्जभागमेत्तमेव दव्वमपुवकिट्टोसु समयाविरोहेण णिसिंचिय सेसबहभागाणमुवरिमपुवकिट्टीसु फद्दएसु च जहापविभागं विहंजिदूण णिसेयविण्णासकरणादो। जयध० पु० १३, पृ० ३०८-३०९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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