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________________ २२४ लब्धिसार प्रथमावेदस्त्रिविधं क्रोधं उपशमयति पूर्वप्रथमस्थितिः । समयाधिकावलिकां यावच्च तत्कालस्थितिबन्धः ॥ २६८ ।। सं० टी०-प्रथमसमयवर्त्यपगतवेदानिवृत्तिकरणविशुद्धिसंयतः तत्काल प्रथमसमयादारभ्य पुवेदनवकबन्धेन सहाप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्दलनक्रोधत्रयमुपशमयति । तत्र संज्वलनक्रोधस्योदयमानस्य पूर्वमन्त रकरणप्रारम्भे स्थापितान्तर्महर्तमात्री प्रथमस्थितिः वेदप्रथमस्थितौ विशेषाधिका सैवेदानीमपि गलितावशेषप्रमाणा समयाधिकावलिमात्रावशेषा यावत्तावत्प्रवर्तते । उच्छिष्टावल्याः प्रथमस्थितिव्यपदेशासम्भवात । उपरि मानादीनां यथाभिनवा प्रथमस्थितिः करिष्यति तथा संज्वलनक्रोधस्य नूतनप्रथमस्थितिकरणानुपपत्तेश्च । संज्वलनक्रोधस्य प्रथमस्थितौ यदा आवलिप्रत्यावलिद्वयमवशिष्यते तदा आगालप्रत्यागालो व्युच्छिन्नौ। तदैव संज्वलनक्रोधस्य गणश्रेणिनिर्जरापि व्युच्छिन्ना केवलं प्रागुक्तक्रमेण प्रत्यावलिद्रव्यस्योदीरणा भवति ।। २६८ ॥ अपगतवेदीके अन्य कार्योंका निर्देश सं० चं०–प्रथम समयवर्ती अपगतवेदी संयमी सो अपगतवेदका प्रथम समयतें लगाय पुरुषवेदका नवक समयप्रबद्ध सहित अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान संज्वलन इनि तीनों क्रोधनिकों उपशमावै है। तहाँ उदयरूप जो संज्वलन क्रोध ताकी प्रथम स्थिति पूर्वं जो अन्तरकरणका प्रारम्भविषै अन्तमुहूर्तमात्र प्रथम स्थिति स्थापी थी ताका प्रमाण पुरुषवेदकी प्रथम स्थितितै साधिक था तिसविर्षे व्यतीत भएं पीछे जो अवशेष रह्या तामैं एकसमय अधिक आवलीमात्र अवशेष रहैं तहांत पहिलैं इहाँ संज्वलनक्रोधकी प्रथम स्थिति जाननी । जाते उच्छिष्टावली अवशेष रहे प्रथम स्थिति नाम न पावै है। बहुरि जैसैं मानादिककी नवीन प्रथमस्थितिका स्थापन करेंगे तैसें क्रोधकी प्रथमस्थिति नवीन न हो है जाते संज्वलन क्रोधका ही उदय चल्या आवै है, तातै अन्तरकरणविषै स्थापी जो प्रथम स्थिति ताका ही इहाँ ग्रहण किया सो इस प्रथम स्थितिविर्षे आवली प्रत्यावली ए दोय अवशेष रहैं आगाल प्रत्यागालका अर संज्वलन क्रोधकी गुणश्रेणि निर्जराका व्युच्छेद हो है। द्वितीयावलीका द्रव्यकौं उदयावलीविषै देनेरूप केवल उदीरणा ही पाइए है ।। २६८ ॥ विशेष -पुरुषवेदके पुराने सत्कर्मके उपशान्त होने पर उसके नवक बन्धको क्रमसे उपशमाता हुआ ही अपगतवेदी जीव प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान और संज्वलनरूप तीन क्रोधोंकी उपशमविधिका प्रारम्भ करता है। इस जीवने पहले जो अन्तरकरण क्रिया करते हुए क्रोध संज्वलनकी प्रथम स्थिति पुरुष वेदकी प्रथम स्थितिसे साधिक स्थापित की थी, वह प्रथम स्थिति अपगत वेदके प्रथम समयमें गलित होकर जितनी शेष बची वही शेष बची प्रथम स्थिति यहाँ प्रवत्त रहती है। जिस प्रकार आगे मानादिककी उपशामना करते समम अपूर्व प्रथम स्थिति स्थापित की जाती है उस प्रकार यहाँ पर तीन क्रोधके उपशमानेके लिये अपूर्व प्रथम स्थिति नहीं स्थापित की जाती । किन्तु पहले जो प्रथम स्थिति रची थी वही पुरानी प्रथम स्थिति तीन क्रोधोंके उपशमाने तक चालू रहती है। इस क्रमसे जब क्रोध संज्वलनकी प्रथम स्थिति उदयावलि और प्रति उदयावलिप्रमाण शेष रहती है तब आगाल-प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति हो जाती है। यह कथन यहाँ उत्पादानुच्छेदकी अपेक्षा किया है । क्योंकि यहाँ पर दो आवलियोंसे एक समय कम दो आवलियाँ ली गई हैं। आगाल-प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति हो जाने पर क्रोधसंज्वलनका गुणश्रेणि निक्षेप नहीं होता, क्योंकि सबसे जघन्य गुणश्रेणि आयाम एक आबलिप्रमाण है, उससे कम नहीं । इसलिये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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