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________________ २२० लब्धिसार प्रथम समयतें लगाय पुरुषवेदकी गुणश्रेणि निर्जराका व्युच्छेद भया तहाँ उदयावली” बाह्य ऊपरि निषेकनिविषै तिष्ठता द्रव्यकौं उदयावलीविषै दीजिए है। ऐसी उदीरणा हो पाइए है। इनिका लक्षण पूर्वोक्त जानने ॥ २६४ ॥ विशेष-पुरुषवेदकी कितनी स्थिति शेष रहने तक आगाल और प्रत्यागाल होते है इसका समाधान जयधवलामें दो प्रकारसे किया गया है। प्रथम समाधानके अनुसार तो यह बतलाया गया है कि पुरुषवेदकी प्रथम स्थितिमें एक समय अधिक दो आवलियाँ शेष रहने तक आगाल और प्रत्यागाल होते हैं। पूरी दो आवलिप्रमाण स्थितिके शेष रहनेपर उन दोनोंकी व्यच्छित्ति हो जाती है किन्तु दूसरी व्याख्याके अनुसार दो आवलिप्रमाण प्रथम स्थितिके शेष रहने तक आगाल और प्रत्यागाल होते रहते हैं। किन्तु एक समय कम दो आवलिप्रमाण प्रथमस्थितिके शेष रहनेपर वे दोनों व्युच्छिन्न हो जाते हैं। इसपर प्रश्न होता है कि यदि ऐसा है तो सूत्रमें यह क्यों कहा कि जब पुरुषवेदकी प्रथम स्थिति दो आवलिप्रमाण शेष रहती है तब आगाल और प्रत्यागाल व्युच्छिन्न हो जाते हैं सो इसका समाधान यह कहकर किया है कि यह कथन उत्पादानुच्छेदनयका आश्रय लेकर किया गया है, क्योंकि उत्पादानुच्छेदके अनुसार विवक्षित वस्तुके सद्भावका जो अन्तिम समय है उस समयमें ही उसके अभावका प्रतिपादन किया जाता है। जैसे मिथ्यात्वगणस्थानमें उसके जिन १६ प्रकृतियोंका बन्ध होता है. इस नयके अनसार वहीं उनकी बन्धव्युच्छित्ति कही जाती है। प्रथमस्थितिमें स्थित द्रव्यका उत्कर्षण कर द्वितीय स्थितिमें निक्षेप करना आगाल है और द्वितीय स्थितिमें स्थित द्रव्यका अपकर्षणकर प्रथम स्थितिमें निक्षिप्त करना प्रत्यागाल है। यहीं प्रत्यावलिमेंसे प्रतिसमय असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा होती है। अन्तरकरणसमाप्त्यनन्तरसमयादारभ्य संक्रमविशेषप्ररूपणार्थमिदमाह अंतरकदादु छण्णोकसायदव्यं ण पुरिसगे देदि । एदि हु संजलणस्स य कोधे अणुपुव्विसंकमदो ॥ २६५ ।। अंतरकृतात् षण्णोकषायद्रव्यं न पुरुषके ददाति । एति हि संज्वलनस्य च क्रोधे आनुपूविसंक्रमतः ॥ २६५ ॥ सं० टो०--अन्तरकृतादन्तरकरणसमाप्तिसमयात्परं हास्यादिषण्णोकषायद्रव्यं वेदे न संक्रमत्येव अपि तु संज्वलनक्रोधे एव संक्रमति पूर्वोद्दिष्टानुपूर्वीसंक्रमानतिक्रमात् ॥ २६५ ॥ अन्तरकरणके बाद सं० चं०-अन्तर करनेसे पीछे हास्यादि छह नोकषायनिका द्रव्य है सो पुरुषवेदविषै संक्रमण नाहीं करै है संज्वलन क्रोधविषै ही संक्रमण करै हैं जातै इहाँ आनुपूर्वी संक्रमण पाइए है ॥ २६५ ॥ १. अंतरकदादो पाए छण्णोकसायाणं पदेसग्गं ण संछहदि पुरिसवेदे, कोहसंजलणे संछहदि । वही पु० २६७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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