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________________ एक समयबद्धाश्रित स्थितिबन्धापसरणका निर्देश वर्षाणां द्वात्रिंशदुपरि अन्तर्मुहूर्त परिमाणम् । स्थितिबन्धानामपसरणमवरस्थितिबन्धनं यावत् ॥ २५६ ॥ सं० टी०—– द्वात्रिंशद्वर्षमात्रस्थितिबन्धस्योपरि अन्तर्मुहूर्तपरिमाणं स्थितिबन्धापस रणं सर्वजघन्यस्थिति - बन्धपर्यंतं भवतीति ज्ञातव्यम् ।। २५६ ।। आगे स्थितिबन्धा पसरणके प्रमाणका निर्देश -- स चं-बत्तीस वर्षका स्थितिबंध जहां होइ तहांतैं लगाय जहां जघन्य स्थितिबंध होइ तहां पर्यंत तिस बंधापसरणका प्रमाण अंतमुहूर्तमात्र जानना ॥ २५६ ॥ अथ स्थितिबन्धासरणविषयनिर्देशार्थमिदमाह - ठिदिबंधाणोसरणं एयं समयष्पबद्ध महिकिच्चा | उत्तं णाणादो पुण ण च उत्तं अणुवचत्तीदो' ।। २५७ ।। स्थितिबन्धानामपसरणमेकं समयप्रबद्धमधिकृत्य । उक्तं नानातः पुनः न च उक्तमनुपपत्तितः ॥ २५७ ॥ Jain Education International २१३ सं० टी० - विवक्षिता पसरणेनापसृत्य विवक्षितबन्ध प्रथमसमये बध्यमानमेकं समयप्रबद्धमधिकृत्य विवक्षितं स्थितिबन्धापसरणमुक्तं न पुनरन्तर्मुहूर्तकाले द्वितीयादिसमयेषु बध्यमानसमयप्रबद्धानां प्रत्येकं स्थितिबन्धापस रणमन्तर्मुहूर्त कालपर्यन्तं समस्थितिबन्धाभ्युपगमने नानासमयप्रबद्धानधिकृत्य स्थितिबन्धपसरणानुपपत्तेः । अनेनान्तर्मुहूर्त कालपर्यंतमेकेनै कस्थितिबन्धापसरणेन प्राक्तनस्थितिबन्धादपसृत्य समस्थितीनेव समयप्रबद्धान् बध्नातीत्ययमर्थों ज्ञाप्यते ।। २५७ ॥ स्थितिबन्धापस रणविशेषका निर्देश स० चं - स्थितिबंधापसरण है सो विवक्षित स्थितिबंधका प्रथम समयविषे जेता स्थितिप्रमाण हो है तिनाही अंतर्मुहूर्त कालपर्यन्त बंधते समयप्रबद्धनिके स्थितिबंधका प्रमाण हो है । समय समय प्रति नाना समयप्रबद्धनिके स्थितिबंधापसरण होनेकरि समय समय स्थितिबंध घटने की अनुपपत्ति कहिए अप्राप्ति है ।। २५७ ।। विशेष — बन्धावलिके व्यतीत होनेपर अपगतवेदी जीव अपने प्रथम समय में जितने द्रव्य - का संक्रम करता है उत्तरोत्तर अधःप्रवृत्त भागहारसे भाजितकर द्वितीय समयों में विशेष हीन विशेष हीन द्रव्यको संक्रमित करता है । यह जो अल्पबहुत्व है वह विवक्षित एक समयप्रबद्ध के द्रव्यका संक्रम स्वीकार करनेपर ही घटित होता है, क्योंकि संक्रममें नाना समय प्रबद्धोंका संक्रम स्वीकार करनेपर योग में वृद्धि और हानि होनेकी अपेक्षा उक्त अल्पबहुत्वरूप संक्रम नहीं घटित होता। इसलिये प्रकृतमें एक समयप्रबद्धकी अपेक्षा ही पूर्वोक्त अल्पबहुत्व समझना चाहिये । योगकी चार वृद्धि और चार हानि प्रसिद्ध ही हैं । अथ नपुंसकवेदोपशमनान्तरकालभावि क्रियान्तरप्रदर्शनार्थमाहएवं संखेज्जे बिंघ सहस्सगेसु तीदेसु । दुवसमदे तो इत्थं च तहेव उवसमदि ।। २५८ ॥ १. एस कमो एयसमयपबद्धस्स चेव । वही पृ० २८९ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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