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________________ अन्तरकरणके बाद होनेवाले सात करण २०७ क्रियाका प्रारम्भ भया सो एक करण यह भया । बहुरि पूर्व बन्ध भएँ पीछे एक आवली काल व्यतीत भए उदीरणा करनेकी समर्थता थी अब जो बन्ध हो है ताकी बंध समयतें छह आवली व्यतीत भए ही उदीरणा करनेकी समर्थता हो है । सो एक करण यहु भया ।।२४८-२४९।। विशेष—यह जीव अन्तरकरण समाप्तिके कालसे ले कर जो सात करण प्रारम्भ करता है उनका खुलासा इस प्रकार है। (१) उनमेंसे प्रथम करण मोहनीयकर्मका आनुपूर्वीसंक्रम है। खुलासा इस प्रकार है-स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके प्रदेशपुंजको यहाँसे लेकर पुरुषवेदमें संक्रमित करता है। पुरुषवेद, छह नोकषाय तथा प्रत्याख्यानावरण और अप्रत्याख्यानावरणक्रोधको क्रोध संज्वलनमें संक्रमित करना है, अन्य किसोमें नहीं। क्रोध संज्वलन, और दोनों प्रकारके मानको मान संज्वलनमें, मान संज्वलन और दोनों प्रकारकी मायाको मायासंज्वलनमें तथा माया संज्वलन और दोनों प्रकारके लोभको लोभसंज्वलनमें संक्रमित करता है। यह आनुपूर्वी संक्रम है। (२) लोभका असंक्रम यह दूसरा करण है। अन्तरकरणके बाद लोभ संज्वलनका संक्रम नहीं होता यह इसका तात्पर्य है । (३) मोहनीयका एक स्थानीय बन्ध होता है यह तीसरा करण है । यद्यपि इससे पूर्व मोहनीयका द्विस्थानीय बन्ध होता था। किन्तु अन्तरकरणके बाद वह एक स्थानीय होने लगता है। (४) नपुंसकवेदका प्रथम समय उपशामक यह चौथा करण है, क्योंकि प्रथम ही आयुक्त करणके द्वारा नपुंसकवेदकी यहाँसे उपशमन क्रिया प्रारम्भ हो जाती है । (५) छह आवलियोंके जानेपर उदीरणा यह पाँचवाँ करण है। साधारणतः बन्धावलिके बाद उदीरणा होने लगती है। परन्तु यहाँ पर उसके विरुद्ध यह कहा गया है कि छह आवलियोंके जानेपर उदीरणा होती है सो ऐसा स्वभाव ही है। वैसे कल्पित उदाहरण द्वारा कषाय प्राभृत चूर्णिमें इसे स्पष्ट किया गया है । परन्तु वह उदाहरण मात्र समझानेके लिये ही दिया गया है तो उसे जयधवला पृ० २६७ आदिसे जान लेना चाहिये । (६) मोहनीयकर्मका एकस्थानीय उदय होने लगता है। इसका तात्पर्य यह है कि अन्तरकरणके पहले मोहनीयका जो देशघाति द्विस्थानीय उदय होता रहा वह अन्तरकरणके बाद एक स्थानीय होने लगता है। (७) अन्तरकरणके बाद मोहनीय कर्मका स्थितिबन्ध संख्यात वर्ष-प्रमाण होने लगता है यह सातवाँ करण है । आशय यह है कि अन्तरकरणके पहले मोहनीयका असंख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता था, वह अन्तरकरणके बाद घटकर संख्यात वर्षप्रमाण हो जाता है जो उत्तरोत्तर घटकर दसवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें अन्तर्मुहूर्तमात्र रह जाता है। इतना विशेष समझना चाहिये कि अन्तरकरणके बाद शेष कर्मों का स्थितिबन्ध असंख्यात वर्ष प्रमाण होने में कोई बाधा नहीं है। इस प्रकार ये सात करण हैं जो अन्तरकरणके बाद नियमसे होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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