SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 287
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०८ लब्धिसार अथ चारित्रमोहोपशमनप्रक्रमप्रदर्शनार्थमिदमाह अंतरपढमादु कम्मे एक्के मत्त चदुसु तिय पयडिं । सममुच सामदि णवकं समऊणावलिदुगं वज्जं ॥ २५० ॥ अन्तरप्रथमात् क्रमेण एकैकं सप्त चतुर्पु त्रयी प्रकृतिम् । समुच्य शमयति नवकं समयोनावलिद्विकं वय॑म् ॥ १५० ॥ सं० टी-अन्तरकरणसमाप्त्यनन्तरसमयादारभ्य क्रमेणान्तम हर्तेन कालेन एकामेकां सप्त चतुव॑न्तम हर्तेष त्रयीं त्रयीं प्रकृति समयोनद्वयावलिमात्रनवकबन्धसमयप्रबद्धान् वर्जयित्वाऽयमनिवृत्तिकरणविशद्धसंयत उपशमयति कषायत्रयं वा परेणान्तमहर्तेन युगपद्पशमयतीति विशेषो ग्राह्यः । ता एवोपशम्यमानाः प्रकृतीरुद्दिशति ।।२५०।। स. चं०-अन्तर कीए पीछे प्रथम समयतें लगाय क्रमतें एक एक अन्तर्मुहूर्तकाल करि तो एक एक सात प्रकृतिनिकौं अर च्यारि अन्तमुहूर्तविषै क्रमतें तीन-तीन प्रकृतिनिकौं उपशमावै है। तहाँ समय घाटि दोय आवलीमात्र नवक समयप्रबद्धकौं नाही उपशमावै है सो याका स्वरूप आगै कहेंगे सो जानना ।।२५०॥ एय णउंसयवेदं इत्थीवेदं तहेव एयं च । सत्तेव णोकसाया कोहादितियं तु पयडीओ ॥ २५१ ।। एको नपुंसकवेदः स्त्रीवेदः तथैव एकः च । सप्तैव नोकषायाः क्रोधादित्रयं तु प्रकृतयः ॥ २५१॥ सं० टी०-एको नपुंसकवेदस्तथैवैकः स्त्रीवेदः सप्त नोकषाया हास्यादयः षट् वेदश्चेति क्रोधत्रयं मानत्रयं मायात्रयं लोभत्रयं चेत्युपशम्यमानाः प्रकृतयः क्रमेण ज्ञातव्याः ॥२५१॥ स० चं०-एक नपसक वेद एक स्त्रीवेद तैसैं ही सात नोकषाय अर तीन क्रोध तीन मान तीन माया तीन लोभ ऐसै क्रमतें उपशम होनेरूप इकईस प्रकृति हैं ॥२५१॥ विशेष–अन्तरकरणके पश्चात् मोहनीय कर्मकी शेष २१ प्रकृतियोंका किस क्रमसे और कितने कालमें उपशमन अर्थात् सर्वोपशमन करता है इस तथ्यका इस गाथामें निर्देश किया गया है। विशेष स्पष्टीकरण आचार्य स्वयं आगे करेंगे ही। १. अंतरादो पढमसमयकदादो पाए णवुसयवेदस्स आउत्तकरणउवसामओ णवु सयवेदे उवसंते से काले इत्थिवेदस्स उवसामगो। इत्थिवेदे उवसंते से काले से काले सत्तण्हं णोकसायाण उवसामगो । पढमसमयअवेदो तिविहं कोहमुवसामेंइ । जाधे कोधस्स बंधोदया वोच्छिण्णा ताधे पाए माणस्स तिविहस्स उवसामगो । ताधे पाये तिविहाए मायाए उवसामगो। ताधे चेव जाओ दो आवलियाओ समयूणाओ एत्तियमेत्ता लोहसंजलणस्स समयबद्धा अणुवसंता । किट्टीओ सव्वाओ चेव अणुवसंताओ, तन्वदिरित्तं लोहसंजलणस्स पदेसग्गं उवसंतं । दुविहो लोहो सव्वो चेव उवसंतो णवकबंधुच्छिट्टावलियवज्ज । क० चू०, जयध० पु० १३, पृ० २७२ से ३१८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy