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________________ अन्तरकरणके बाद सात करण २०५ व्यतीत होइ तब गुणश्रेणिका एक समय उदयावलीविषै मिलै । अर तब ही गुणश्रेणिवि अन्तरायामका एक समय मिलै अर तब ही अन्तरायामविष द्वितीय स्थितिका एक निषेक मिलै । द्वितीय स्थिति घटै है । प्रथम स्थिति अर अंतरायाम जेताका तेता रहै है ऐसा जानना ॥२४७।। विशेष-(१) जयधवलामें जिन प्रकृतियोंका अन्तरकरण होता है उनकी अन्तरसम्बन्धी स्थितियोंका कहाँ किस प्रकार निक्षेप होता है इसका विशेष खुलासा इस प्रकार किया है। अन्तर करनेवाला जो जीव जिन कर्मोको बाँधता है और वेदता है उन कर्मोकी अन्तरको प्राप्त होनेवाली स्थितियोंमेंसे उत्कीर्ण होनेवाले प्रदेशपुंजको अपनी प्रथम स्थितिमें निक्षिप्त करता है और आबाधाको छोड़कर द्वितीय स्थितिमें भी निक्षिप्त करता है, किन्तु अन्तर सम्बन्धी स्थितियोंमें निक्षिप्त नहीं करता, क्योंकि उनके कर्मपुजमेंसे वे स्थितियाँ रिक्त होनेवाली हैं, इसलिए उनमें निक्षिप्त नहीं करता। इस विषयमें कुछ आचार्य ऐसा व्याख्यान करते हैं कि जब तक अन्तरसम्बन्धी द्विचरम फालिका अस्तित्व रहता हैं तब तक स्वस्थान में भी अपकर्षणसम्बन्धी अतिस्थापनावलिको छोडकर अन्तरसम्बन्धी स्थितियोंमें भी निक्षिप्त करता है। उनके व्याख्यानके अनुसार भी सर्वत्र यह कथन करना चाहिये । (२) जो कर्म बँधते नहीं और वेदे नहीं जाते वे आठ कषाय और छह नोकषाय हैं । सो उनकी अन्तर स्थितियोंमेंसे उत्कीर्ण होनेवाले प्रदेशपुंजको अपनी स्थितियों में नहीं देता है। किन्तु बँधनेवाली प्रकृतियोंकी द्वितीय स्थितिमें उत्कर्षण द्वारा बन्धके प्रथम समय निक्षिप्त करता है तथा बँधनेवाली और नहीं बँधनेवाली जिन प्रकृतियोंकी प्रथम स्थिति है उनमें भी यथासम्भव अपकर्षण और परप्रकृति संजम द्वारा निक्षिप्त करता है, परन्तु स्वस्थानमें निक्षिप्त नहीं करता। (३) जो कर्मपुज बंधते नहीं किन्तु वेदे जाते हैं। जैसे स्त्रीवेद और नपुसकवेद । उनकी अन्तरसम्बन्धी स्थितियोंको अपनी-अपनी प्रथम स्थितिमें अपकर्षण करके निक्षिप्त करता है तथा जिन संज्वलन प्रकृतियोंका उदय हो उनकी प्रथम स्थितिमें आगमानुसार अपकर्षण और परप्रकृति संक्रमण द्वारा निक्षिप्त करता है तथा बन्धकी अपेक्षा उत्कर्षण करके द्वितीय स्थितिमें भी निक्षिप्त करता है। (४) जिन कर्मोको मात्र बाँधता है, वेदता नहीं। जैसे परोदयको विवक्षामें पुरुषवेद और अन्यतर संज्वलन । इनका केवल बन्ध होता है, उदय नहीं होता। उनकी अन्तर स्थितियोंमेंसे उत्कीर्ण होनेवाले प्रदेशपुंजको उत्कर्षण द्वारा अपनी द्वितीय स्थितिमें निक्षिप्त करता है तथा उदयवाली बन्धको प्राप्त होनेवाली प्रकृतियों की प्रथम और द्वितीय स्थितिमें निक्षिप्त करता है तथा जिनका उदय नहीं होता, किन्तु बन्ध होता है उनकी दूसरी स्थितिमें निक्षिप्त करता है। अथान्तरकरणनिष्पत्त्यनन्तरसमये संभवक्रियाविशेषप्रदर्शनार्थ गाथाद्वयमाह सत्तकरणाणि यंतरकदपढमे होंति मोहणीयस्स । इगिठाणियबंधुदओ ठिदिबंधो संखवस्सं च ।। २४८ ।। आणुपुव्वीसंकमण लोहस्स असंकमं च संढस्स । पढमोवसामकरणं छावलितीदेसुदीरणदा' ।। २४९ ।। १. ताधे चेव मोहणीयस्स आणुपुव्वीसंकमो, लोमस्स असंकमो, मोहणीयस्स एकट्टाणिओ बंधो, ण. सयवेदस्स पढमसमयउवसामगो, छसु आवलियासु गदासु उदीरणा, मोहणीयस्स एगट्ठाणिओ उदओ, मोहणीयस्स संखेज्जवस्सटिदिओ बंधो, एदाणि सत्तविहाणि करणाणि अन्तरकदपढमसमए होति । वही पृ० २३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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