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________________ २०४ लब्धिसार तिनका अन्तरसम्बन्धी द्रव्यकों अपकर्षण करि अपनी प्रथम स्थितिविषै निक्षेपण करै है । अर उत्कर्षण करि तहां बँधे हैं जे अन्य कषाय तिनकी द्वितीय स्थितिविषै निक्षेपण करे है । (बहुि अपकर्षण करि उदयरूप अन्य क्रोधादि कषायकी प्रथम स्थितिविषै संक्रमण हो है । तिस उदय प्रकृतिरूप परिणमै है इतना भी सिद्धान्तोक्त विशेष जानना । बहुरि जिनिका बन्ध भी अर उदय भी पाइये ऐसा पुरुषवेद वा कोई एक कषाय तिनके अन्तरसम्बन्धी द्रव्यक अपकर्षण करि उदयरूप प्रकृतिनिकी प्रथम स्थितिविषै निक्षेपण करें है । अर उत्कर्षण करि तहाँ बँधे हैं जे प्रकृति तिनकी द्वितीय स्थितिविषै निक्षेपण करें हैं। इहां भी अन्य प्रकृतिकी प्रथम द्वितीय स्थितिविषै उत्कर्षण अपकर्षणका वशकरि अन्य प्रकृति परिणमनेरूप संक्रमण हो है ऐसा विशेष जानना । अणुभयगाणंतरजं बंधताणं च विदियगे देदि' | एवं अंतरकरणं सिज्झदि अंतोमुहुत्तेण ॥ २४७ ॥ अनुभयकानामन्तरजं बध्यमानानां च द्वितीय के ददाति । एवमन्तरकरणं सिद्धयति अन्तर्मुहूर्तेन ॥ २४७ ॥ सं० टी० - बन्धोदयरहितानां मध्यमाष्टकषायहास्यादिषण्णोकषायाणामन्तरायामें उत्कीर्ण द्रव्यं तात्कालिकोदय मात्र प्रकृतिप्रथमस्थितावपकृष्य संक्रमयति । बध्यमानप्रकृतिद्वितीयस्थितौ चोत्कृष्य संक्रमयति । सर्वत्र बन्धरहितानामन्तरद्रव्यं स्वद्वितीयस्थितौ न निक्षिपति । उदय रहितानामन्तरद्रव्यं स्वप्रथम स्थिती न निक्षिपति इति विशेषो निर्णेतव्यः । एवमन्तर्मुहूर्त कालेनान्तरकरणं सिध्यति । अत्रान्तरकरणप्रारम्भसमयादारभ्य प्रथमस्थित्यन्तरायामी व्यवस्थित प्रमाणौ द्रष्टव्यौ । उदयावल्यां एकस्मिन् समये गलिते गुणश्रेणिसमयस्यैकस्योदयावल्या प्रवेशात् । तदैवान्तरायामसमयस्यैकस्य गुणश्रेण्यायामे प्रवेशात् । तदैव च द्वितीय स्थितिनिषेकस्यैकस्यान्तराया में प्रवेशात् । एवं द्वितीयस्थितिरेव हीयते प्रथमस्थित्यान्तरायामौ तदवस्थावेवेति निश्चेतव्यम् ।। २४७ । स० चं० - बन्ध उदय रहित जे अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान कषाय अर हास्यादि छह नोकषाय तिनका अन्तरसम्बन्धी द्रव्यका अपकर्षण करि तिस काल उदयरूप जे अन्य प्रकृति तिनकी प्रथम स्थितिविषै संक्रमण हो है तद्रूप परिणमैं हैं । अर उत्कर्षण करि तिस काल विष हैं अन्य प्रकृति तिनको द्वितीय स्थितिविषै संक्रमण हो है तद्रूप परिणमै है ऐसें प्रकृतिनिका जिन निषेकनिका अभावकरि अन्तर कीया तिनके द्रव्यको निक्षेपण करें हैं। इहाँ इतना जानना - बन्ध रहित प्रकृतिनिका द्रव्यकौं तो अपनी द्वितीय स्थितिविषै अर उदय रहित प्रकृतिनिका द्रव्यकौं अपनी प्रथम स्थितिविषै नाही निक्षेपण करें है । बहुरि प्रथम स्थिति तो अन्तरायामके नीचे है ता तहाँ देनेविषै स्थिति घटै है । तातें तहाँ अपकषर्ण कह्या । अर द्वितीय स्थिति अन्तरायामके उपरिवर्ती है ताते तहाँ द्रव्य दीएं स्थिति बधे है तहां उत्कर्षण कह्या । ऐसें करि अन्तर करनेकी समाप्तता हो है । इहां अन्तर करणका प्रथम समयतें लगाय प्रथम स्थिति अर अन्तरायामका प्रमाण जेताका तेता रहै है । जब उदयावलीका एक समय १. जे कम्मंसा ण बज्झति ण वेदिज्जंति तेसिमुक्कीरमाणं पदेसग्गं बज्झमाणीणं पयडीणमणुक्कीरमाणसुट्टी देदि । क० चु० जयध० पु० १३, पृ० २५९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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