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________________ २०२ लब्धिसार प्रकृतिनिका तहाँ एक कालवर्ती होनेत समान हैं । बहुरि अन्तरायामका प्रथम निषेकके नीचें जो निषेक सो उदय प्रकृतिनिका परस्पर समान है । वा अनुदय प्रकृतिनिका परस्पर समान है अर उदय अनुदय प्रकृतिनिका समान नाहीं । जातैं इनके प्रथम स्थितिविषै समान नाहीं । जो प्रथम स्थितिका अन्तका निषेक सोई अन्तरायामका नीचेका निषेक है । बहुरि अन्तर्मुहूर्त वा आबलीमात्र जो उदय अनुदय प्रकृतिनिका प्रथम स्थिति तातं संख्यातगुणा ऐसा अन्तर्मुहूर्तमात्र अन्तरायाम है । इतने निषेकनिका अभाव करिए है । तहाँ उदयमान प्रकृतिनिकै तो गुणश्रेणि शीर्षके निषेक अर तिनते संख्यात गुणे उपरितन स्थितिके निषेक तिनकों ग्रहि अन्तर करै है । अर अनुदय प्रकृतिनिका अवशेष इहाँ पाइए जो गुणश्र ेणी आयाम अर तिनतें संख्यातगुणे उपरितन स्थिति निषेक तिनकों ग्रहकरि अन्तर करै है || २४३ ॥ अंतरपढमे अण्णो ठिदिबंधो ठिदिरसाण खंडो य ! यदि डुक्कीरणकाले अंतरसमती' ।। २४४ ॥ अन्तरप्रथमे अन्यः स्थितिबन्धः स्थितिरसयोः खण्डश्च । एक स्थिति खण्डोत्करणकाले अन्तरसमाप्तिः ॥ २४४॥ सं० टी—अन्तरकरणप्रथमसमये अन्य एव स्थितिबन्धः प्राक्तनस्थितिबन्धादसंख्यातगुणहीनः, स्थितिखण्डं चान्यदेव प्राक्तनस्थितिखण्डाद्विशेषहीनं अन्यदेवानुभागखण्डं च प्राक्तनानुभागखण्डादनन्त गुणहीनं प्रारभ्यते । एवंविधैकस्थितिखण्डोत्करणकालसमेनान्तर्मुहूर्ते नान्तरसमाप्तिर्भवति । तत्समाप्तौ च प्रकृतसमस्थितिखण्डोत्करणं संख्यातसहस्रानुभागखण्डोत्करणानि च युगपत् समाप्यन्त इत्यर्थः ।। २४४ । स० चं०—अन्तर करणका प्रथम समयविषै पूर्व स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा घटता ऐसा और ही स्थितिबंध अर पूर्व स्थितिकांडकतें किछू घटता ऐसा और ही स्थिति कांडक अर पूर्व अनुभाग कांडकतें अनन्तगुणा घटता ऐसा और ही अनुभागकांडकका प्रारम्भ हो है । तहाँ एक स्थितिकांडकोत्करणका जेता काल तितने कालकरि अन्तरकरण करिए है । ताको समाप्ति होतें एक स्थितिकांडक घात भया । तीहिविषे संख्यात हजार अनुभाग कांडकनिका घात भया ऐसा अर्थ जानना ||२४४|| Jain Education International अथान्तरोत्कीर्णद्रव्यनिक्षेपनिरूपणार्थ गाथात्रयमाह अंतरहेदुक्कीरिददव्वं तं अंतरम्हि णय देदि । बंधंताणंतरजं बंधाणं विदियगे देदि ।। २४५ ।। १. जाधे अंतरमुक्कीरदि ताधे अण्णो द्विदिबंधो पबद्धो अण्णं द्विदिखंडयसण्णमणुभागखंडयं च गेण्हदि । अणुभागखंड सहस्से गदेसु अण्णमणुभागखंडयं ते चेत्र द्विदिखंडयं सो चेव द्विदिबंधो अन्तरस्स उक्कीरणद्धा च समगं पुण्णाणि । वही पृ० २५५-२५६ । २. जे पुण कम्मसा बज्झमाणा चेव केवलं, ण वेदिज्जमाणा जहा परोक्ष्येण विवक्खाए पुरिसवेदो अण्णदरसंजलो वा तेसिमंत रट्ठिदीसु उक्कीरिज्जमाणस्स पदेसागस्स अप्पणो विदियट्ठिदीए उक्कड्डणावसेण संचारो । सोदयाणं बज्झमाणाणं पढमठिदीसु अणुदयाणं बज्झमाणाणं विदियठिदीए च संचारो ण विरुद्धोति । जयध० पु० १३, पृ० १६० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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