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लोमका द्रव्य और पूरा प्रत्याख्यान लोभका द्रव्य उपशान्त हो जाता है। मात्र एक समय कम दो आवलिप्रमाण नवक द्रव्य, उच्छिष्टावलिप्रमाण निषेकद्रव्य और सूक्ष्मकृष्टिगत द्रव्य उपशान्त नहीं होता।
इसके बाद तदनन्तर समयमें सूक्ष्म साम्परायगुणस्थानको प्राप्त होकर सूक्ष्म कृष्टिकी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्रथम स्थितिका कारक और वेदक होता है । यहाँ सूक्ष्म कृष्टिकी प्रथम स्थितिका काल बादर लाभके वेदक कालसे कुछ कम दो भागप्रमाण होनेसे यही सूक्ष्मसाम्यराय गुणस्थानका काल है और यह उदयादि अवस्थित गुणश्रेणिरूप है। परन्तु ज्ञानावरणादि कर्मों की जो गुणणि होती है वह गलित शेष होती है जिसका काल सूक्ष्मसाम्परायके कालसे कुछ अधिक है, क्योंकि इन कर्मोंकी जो गुणश्रेणि रचना अपूर्वकरणके प्रथम समयमें की रही वही यहाँ इतनी अवशिष्ट रहती है।
सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें सब सूक्ष्म कृष्टियोंको नहीं वेदता, किन्तु जो वेदने योग्य हैं उनका वेदन करता है और शेषको उपशमाता है । इसका विचार मूलमें किया ही है वहाँसे जानना चाहिये।
यहाँ इस बातका संकेत कर देना आवश्यक प्रतीत होता है वह यह कि बन्ध प्रकृतियाँ होनेसे पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभका जो उस उस स्थानपर एक समय कम दो आवलिप्रमाण नवक द्रव्य शेष रहता आया है सो उसका क्रमसे क्रोध, मान, माया, लोभ और सूक्ष्मकृष्टिकी प्रथम स्थितिके कालमें समय समय असंख्यातगुणा-असंख्यातगुणा उपशमित करना है । उदाहरणार्थ पुरुषवेदका एक समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध क्रोध संज्वलनकी प्रथम स्थितिके कालमें समय-समय उपशमित होता है । क्रोधसंज्वलनका एक समय कम दो आवलिप्रमाण नवक द्रव्य मानसंज्वलनकी प्रथम स्थितिके कालमें उपशमित होता है। इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए।
इस विधिसे जब सूक्ष्म कृष्टिकी प्रथम स्थितिमें दो आवलिकाल शेष रहता है तब आगाल-प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति हो जाती है, जब एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहता है तब जघन्य उदीरणा होती है और उच्छिष्टावलिप्रमाण निषेकोंके अवशिष्ट रहनेपर वे स्वसुखसे उदयरूप परिणय कर निर्जरित हो जाते हैं । तदनन्तर समयमें यह जीव उपशान्तमोह हो जाता है।
उपशान्तमोहमें मोहनीय कर्मका उदय न होनेसे सर्वत्र अवस्थित परिणाम रहते हैं। इसका काल अन्तमुहूर्त है। इसमें जो गुणश्रेणि रचना होती है वह उपशान्तमोहके कालके संख्यातवें भागप्रमाण कालवाली होती है । उससे अपूर्वकरणमें की गई गुणश्रेणिका शीर्ष संख्यातगुणा होता है। पूर्व समयसे यहाँ प्रथम समयमें असंख्यातगुणे द्रव्यका निक्षेप होता है। यह गुणश्रेणि रचना ज्ञानावरणादि कर्मोंकी जाननी चाहिये जो उदयादि अवस्थितस्वरूप होती है। यहाँ प्रत्येक समयमें अवस्थित परिणाम होनेसे द्रव्यका निक्षेप भी अवस्थितस्वरूप ही जानना चाहिये। प्रकृतमें इतनी विशेषता और जाननी चाहिये कि उपशान्त मोहके प्रथम समयमें की गई गुणश्रेणिके शीर्षका जिस समय उदय होता है उस समय ज्ञानावरणादि कर्मों का उत्कृष्ट प्रदेश उदय होता है।
यहाँ प्रसंगसे कौन प्रकृतियाँ अवस्थित वेदक होती हैं और किन प्रकृतियोंका यह जीव किस प्रकार अनवस्थित वेदक होता है इसका विशेष विचार किया गया है जिसे हमने विशेषार्थ द्वारा (पृ० २७२) मूलमें स्पष्ट किया ही है, इसलिए उसे वहाँसे जान लेना चाहिये ।।
उपशान्तकषाय गुणस्थानसे पतन एक तो भवका अन्त होनेसे होता है और इस प्रकार मरणको प्राप्त हुआ यह जीव नियमसे असंयत सम्यग्दृष्टि वैमानिक देव होता है। उसके होनेके प्रथम समयमें ही सब करण उद्घाटित हो जाते हैं। अर्थात् उदयवाली मोह प्रकृतियोंका अपकर्षण कर वह उदयावलिसे लेकर
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