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________________ [ १२ । करता है। तथा बन्ध और उदयसे रहित प्रकृतियोंके अन्तरकरणके लिये गहीत द्रव्यको बँधनेवाली अन्य सजीय प्रकृतियोंकी द्वितीय स्थितिमें निक्षिप्त करता है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर अन्तरकरण क्रिया सम्पन्न करता है। इस प्रकार अन्तरकरण क्रिया सम्पन्न करने के बाद सात करण प्रारम्भ होते हैं-१. मोहनीयकर्मका आनुपूर्वी संक्रम । २. लोभ संज्वलनका अन्य प्रकृतियोंमें संक्रमका न होना। ३. मोहनीयकी बंधनेवाली प्रकृतियोंका एक लतास्थानीय बन्ध होना। ४. नपुंसक वेदका आयुक्त करणके द्वारा यहाँसे उपशमन क्रिया प्रारम्भ करना । ५. छह आवलियोंके जानेपर उदीरणा होने लगना। ६. मोहनीयका एक स्थानीय उदय होने लगना तथा ७ मोहनीयका स्थितिबन्ध संख्यात वर्षप्रमाण होने लगना । ये सात करण अन्तरकरणके बाद नियमसे प्रारम्भ हो जाते हैं । अन्तरकरणके बाद नपुसकवेद, स्त्रीवेद, सात नोकषाय तथा तीन क्रोध, तीन मान और तीन माया इनको क्रमसे उपशमाता है। मात्र नवकबन्धके एक समय कम दो आवलि प्रमाण समयप्रबद्धोंको छोड़कर उपशमाता है । इसके स्पष्टीकरणके लिए गाथा २६२ को टीका देखो। अपगतवेदी होनेपर यह जीव पुरुषवेदके एक समय कम दो आवलि प्रमाण नवकबन्धके साथ जब तीन क्रोधोंका उपशम करता है तब प्रथम स्थितिमें तीन आवलि शेष रहने तक अप्रत्याख्यान क्रोध और प्रत्याख्यान क्रोधको संज्वलन क्रोधमें संक्रमित करता है। इसके बाद इनको मान संज्वलनमें संक्रमित करता है । और इस प्रकार क्रोधसंज्वलनकी प्रथम स्थिति एक आवलि प्रमाण शेष रहते समय तीनों क्रोधोंका उपशम हो जाता है। यहाँ जो क्रोधसंज्वलनकी उच्छिष्टावलि प्रमाण स्थिति शेष रही उसको क्रमसे स्तिवुकसंक्रम द्वारा मान संज्वलनमें संक्रम करता है। ___ इस प्रकार जिस समय तीन क्रोधोंका उपशम होता है उसके अनन्तर समयमें मानकी प्रथम स्थिति करनेके साथ उसका वेदक होता है । और इस प्रकार तीन मानोंका उपशम भी तीन क्रोधोंके समान करके तदनन्तर समयमें मायाकी प्रथम स्थिति करने के साथ उसका वेदक होकर पूर्वोक्त विधिसे इनका भी उपशम करता है । इसके बाद लोभसंज्वलनकी प्रथम स्थिति करने के साथ उसका वेदक होता है। और इस प्रकार प्रथम स्थितिका प्रथमार्ध व्यतीत होकर जब द्वितीया प्रारम्भ होता है तब लोभके अनुभागकी सूक्ष्म कृष्टीकरण क्रिया प्रारम्भ करता है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि उपशमश्रेणिमें न तो पूर्व स्पर्धकोंसे अपूर्वस्पर्धकोंकी रचना होती है और न ही बादर कृष्टियोंकी रचना होती है। किन्तु जघन्य स्पर्धकगत लोभसे नीचे सूक्ष्म कृष्टीकरणकी क्रिया सम्पन्न होती है। तात्पर्य यह है कि जो जघन्य स्पर्धकगत लोभ है उससे नीचे अनन्तगुणी हीन सूक्ष्म कृष्टियोंकी रचना करता है। यह क्रिया सम्पन्न करते हुए प्रति समय अपूर्व-अपूर्व कृष्टियोंकी रचना करता है। जैसे एक स्पर्धकमें क्रमवृद्धि या क्रमहानिरूप अविभागप्रतिच्छेद पाये जाते हैं उस प्रकार कृष्टियोंमें क्रमवृद्धि या क्रमहानिरूप अविभागप्रतिच्छेद नहीं पाये जाते । इस प्रकार कृष्टिकरणकी क्रिया सम्पन्न करते हुए जब कृष्टिकरणके काल में एक समय कम तीन आवलि काल शेष रहे तब अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान लोभका संज्वलन लोभमें संक्रमण न होकर इनकी स्वस्थानमें ही उपशमन क्रिया सम्पन्न होती है। तथा जब संज्वलन लोभकी प्रथम स्थिति में दो आवलि काल शेष रहता है तब आगाल-प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति हो जाती है और प्रत्यावलिके अन्तिम समयमें संज्वलन लोभकी जघन्य उदीरणा होती है। एक बात और है। वह यह कि बादर लोभकी प्रथम स्थितिमें यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि जब प्रत्यावलिमें एक समय शेष रहता है तब लोभसंज्वलनका स्पर्धकगत पूरा द्रव्य तथा पूरा अप्रत्याख्यान Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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