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________________ [ ११ 1 ६ वें भागके अन्तमें होती है। तदनन्तर अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन चार प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। इस प्रकार अपूर्वकरणको समाप्त कर यह जीव अनिवृत्तिकरणमें प्रवेश करता है । यहाँ स्थितिकाण्डकघात आदि नये कार्य प्रारम्भ होते हैं । इसके प्रथम समयमें ही सभी कर्मों से जो कर्मपुञ्ज अप्रशस्त उपशमनारूप हैं, जो कर्मपुंज निधत्तिरूप हैं और जो कर्मपुंज निकाचितरूप हैं, उन तीनोंकी व्युच्छित्ति कर वे कर्मपुञ्ज क्रमशः उदीरणाके योग्य, संक्रम और उदीरणाके योग्य तथा संक्रम, उत्कर्षण, अपकर्षण और उदीरणाके योग्य हो जाते हैं । हम देखते हैं कि अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें ही ये कार्य प्रारम्भ हो जाते हैं और इस विधिसे जब मोहनीयकर्मादिका स्थितिबन्ध शेष कर्मोके स्थितिबन्धसे कम होने लगता है तब अन्तमें सबसे कम मोहनीयका, उससे अधिक तोसिय प्रकृतियोंका, उससे अधिक वोसिय प्रकृतियोंका और उससे अधिक वेदनीयका स्थितिबन्ध होता है और इस प्रकार क्रमकरणकी विधि समाप्त होती है। इस विधिसे क्रमकरणके अन्तमें कर्मीका जो स्थितिबन्ध होता है वह पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है तथा असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा होती है । - इसके बाद यह जीव हजारों स्थितिबन्धापसरणोंके व्यतीत होने के बाद सर्वप्रथम मनःपर्ययज्ञानावरण और दानान्तरायका देशघातिबन्ध करता है । तत्पश्चात् उतने उतने ही स्थितिबन्धापसरणोंके व्यतीत होनेपर क्रमसे अवधिज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरण और लाभान्तरायका तत्पश्चात् श्र तज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण और भोगान्तरायका तत्पश्चात् चक्षुदर्शनावरणका तत्पश्चात् आभिनिबोधिक ज्ञानावरण और परिभोगान्तरायका तथा सबके अन्तमें वीर्यान्तरायका देशघाती बन्ध करता है। तात्पर्य यह है कि इसके पहले इन कर्मोंका जो सर्वघाती द्विस्थानीय बन्ध होता था वह अब परिणामविशेषोंको निमित्तकर देशघाती द्विस्थानीय बन्ध होने लगता है । तदनन्तर हजारों स्थितिबन्धापसरणोंके जानेपर मोहनीयकी २१ प्रकृतियोंका अन्तरकरण करता है । इनके अतिरिक्त अन्य कर्मोंका अन्तरकरण नहीं होता। यह क्रिया करते समय जिस संज्वलन कषाय और वेदका वेदन करता है उसकी प्रथम स्थिति अन्तर्महर्तप्रमाण स्थापित कर शेष १९ कर्मोंकी स्थितिको एक आवलिप्रमाण स्थापित करता है । अन्तरकरण करते समय स्थितिके तीन भाग करता है-१ प्रथम स्थिति, २ अन्तरके लिए गृहीत स्थिति और ३ द्वितीय स्थिति । प्रथम स्थितिसे अन्तरके लिये गृहीत स्थिति संख्यातगुणी होती है । उसके ऊपरकी शेष सब स्थितिकी द्वितीय स्थितिसंज्ञा है। उदयस्वरूप और अनुदयस्वरूप सभी प्रकृतियों के अन्तरसे ऊपरकी प्रथम स्थिति सदृश होती है, क्योंकि द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेकका सर्वत्र सदशरूपसे अवस्थान होता है, किन्तु नीचे अन्तर विसदृश होता है, क्योकि अनुदय स्वरूप प्रकृतियोंकी प्रथम स्थिति एक आवलिप्रमाण और उदयस्वरूप प्रकृतियोंको प्रथम स्थिति एक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्वीकार की गई है। यहाँ उदयवाली प्रकृतियों के अन्तरायामका प्रमाण गुरणश्रोणिशीर्ष और उससे संख्यातगुणा है तथा अनुदयवाली प्रकृतियों के अन्तरायामका प्रमाण अवशिष्ट गुणश्रेणि और उससे संख्यातगुणा है । एक स्थितिकाण्डक के उत्कीरण करने में जितना काल लगता है उतना ही काल अन्तरकरण क्रियाको सम्पन्न करने में लगता है। अन्तर करने के लिये जो द्रव्य ग्रहण किया जाता है उसे अन्तरायाममें निक्षिप्त नहीं करता है । केवल उदयवाली प्रकृतियोंके अन्तरकरणके लिए गृहोत द्रव्यको अपनी प्रथम स्थितिमें तथा उस समय बँधने वाली सजातीय प्रकृतियोंकी द्वितीय स्थितिमें निक्षिप्त करता है। केवल बँधनेवालो प्रकृतियोंके अन्तरकरणके लिये गृहीत द्रव्यको उत्कर्षण कर उनकी द्वितीय स्थिति में निक्षिप्त करता है । बन्ध और उदय उभयरूप प्रकृतियों के अन्तरकरणके लिये गृहीत द्रव्यको उनकी प्रथम स्थिति और द्वितीय स्थितिमें निक्षिप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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