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________________ [80] औपशमिक चारित्रलब्धि tator दृष्टि मनुष्य हैं वे तो गुणस्थान परिपाटीके अनुसार औपशमिक चारित्रको प्राप्त करनेके अधिकारी हैं ही, किन्तु जो वेदकसम्यग्दृष्टि जीव हैं वे यदि उपशम श्रेणिपर आरोहण करना चाहते हैं तो सर्व प्रथम वे अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके तथा दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंकी उपशमना करके द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि होकर ही उपशमश्रेणिपर आरोहण कर औपशमिक चारित्रको प्राप्त हो सकते हैं | नियम यह है कि जो वेदक सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके दर्शनमोहनीयकी उपशमना करता है उसके अपूर्वकरण में गुणसंक्रमके स्थानपर विध्यातसंक्रम और अधःप्रवृत्त संक्रम होते हैं । उसमें भी अधःप्रवृत्तसंक्रम अप्रशस्त कर्मोंका होता है । अनिवृत्तिकरण में उसका संख्यात बहुभाग जानेपर असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा होती है । उसके बाद अन्तर्मुहूर्त कालतक दर्शनमोहनीयको अन्तरकरण क्रिया करता है । तदनन्तर प्रथम स्थिति के समाप्त होनेपर यह जीव द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि हो जाता है । इस प्रकार द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि होनेके प्रथम समयसे लेकर जितना गुणसंक्रमका पूरण काल है उससे संख्यातगुणे काल तक प्रति समय विशुद्धिकी वृद्धिके द्वारा उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त होता रहता है । तदनन्तर विशुद्धिकी वृद्धि और हानि द्वारा अप्रमत्त और प्रमत्त गुणस्थानोंमें अनेक बार परिवर्तन करता है | चढ़ते समय विशुद्धिको प्राप्त होता है और गिरते समय संक्लेश परिणामोंसे युक्त हो जाता यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इसके बाद यह जीव चारित्रमोहनीयकी २१ प्रकृतियोंका तीन करणविधिसे उपशम करता है । अन्य प्रकृतियों का उपशम नहीं होता। ऐसा करते समय अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, स्थितिबन्धापसरण, क्रमकरण, देशघातिकरण, अन्तरकरण और उपशमकरण ये आठ कार्य विशेष होते हैं । इनमें से तीन करणोंका लक्षण जैसा पहले बतला आये है उसी प्रकार जानना चाहिये । प्रकृत में दर्शनमोहनीयका क्षय कर यदि कषायोंको उपशमाता है तो उसके अपूर्वकरणके प्रथम समय में जो स्थितिकाण्डक प्राप्त होता है वह नियमसे पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण होता है । किन्तु जो दर्शनमोहके उपशमद्वारा द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि होकर कषायोंका उपशम करता है उसके लिये ऐसा कोई नियम नहीं है । उसके जघन्य स्थितिकाण्डक पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण होता है और उत्कृष्ट स्थितिकाण्डक सागरोपम पृथक्त्व प्रमाण होता है । स्थितिबन्धापसरण पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण होता है । अनुभाग काण्डकघात शुभ प्रकृतियोंका ही होता है । यहाँ उदयावलिसे बाह्य गलितावशेष गुणश्र ेणि होती है जो आयामकी अपेक्षा अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय के कालसे कुछ अधिक प्रमाणवाली होती है । यहीं से नहीं बँधनेवाली नपुंसकवेद आदि अप्रशस्त प्रकृतियोंके गुणसंक्रमका भी प्रारम्भ हो जाता है । यह सब क्रिया करते हुए जब हजारों स्थितिकाण्डकोंका घात हो जाता है तब सर्व प्रथम इस जीवके निद्रा प्रचलाको बन्धव्युच्छित्ति होती है । जहाँ इनकी बन्धव्युच्छित्ति होती है वह अपूर्वकरणके सातवें भागप्रमाण है । यहाँसे अन्तर्मुहूर्त काल जानेपर परभवसम्बन्धी नामकर्मको प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति होती है । ये सब प्रकृतियाँ अधिक से अधिक ३० हैं । इनमें आहारक द्विक और तीर्थकर ये तीन प्रकृतियाँ भी सम्मिलित हैं । जो इन तीनोंका बन्ध नहीं करते उनके २७ प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति होती है । जो आहारक द्विकका बन्ध नहीं करते उनके २८ प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति होती है । जो मात्र तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध नहीं करते उनके २९ प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति होती है । इन ३० प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति अपूर्वकरण के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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