SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विशुद्धिको भी । इस कारण उसके विशुद्धिकालमें अनन्त भागवृद्धि और अनन्त गुणहानिको छोड़कर यथासम्भव शेष चार प्रकारकी वृद्धिको लिये हुए गुणश्रेणि रचना होती है तथा संक्लेशकालमें अनन्त भागहानि और अनन्त गुणहानिको छोड़कर यथासम्भव शेष चार प्रकारकी हानिको लिए हुए गुणश्रेणि रचना होती है। जो मनुष्य देशचारित्रसे च्युत होकर अगले समयमें मिथ्यात्वको प्राप्त होता है उसके जघन्य देशसंयमस्थान होता है और जो मनुष्य अगले समयमें सकलसंयमको प्राप्त होता है उसके उत्कृष्ट देशसंयमस्थान होता है । मध्यम देशसंयमस्थान मनुष्य और तिर्यञ्च दोनोंके होते हैं । देशसंयमस्थानोंके तीन भेद हैं। देशसंयमसे भ्रष्ट होने के अन्तिम समय में प्रतिपात स्थान होते हैं । देशसंयमको प्राप्त करने के प्रथम समयमें प्रतिपद्यमान स्थान होते हैं। इनके बिना अन्य जितने देशसंयम स्थान होते हैं वे सब अनुभयगत स्थान कहलाते हैं । संयमासंयमलब्धिको क्षायोपशमिक बतलाने का कारण यह है कि अप्रत्याख्यानावरणको तो संयतासंयत जीव वेदता नहीं, क्योंकि उसके अप्रत्याख्यानावरणका उदय नहीं पाया जाता। प्रत्याख्यानावरणका उदय होते हुए भी वह सकल संयमका घात करता है, इसलिए उससे संयमासंयमका किसी प्रकारका भी उपघात नहीं होता । अब रहे चार संज्वलन और नौ नोकषाय सो ये संयमासंयमको देशघाति करते हैं, इसीलिए संयमासंयमको क्षायोपशमिक स्वीकार किया गया है। यतः क्षयोपशमके असंख्यात लोकप्रमाण भेद हैं, इसलिए संयमासंयमके भी असंख्यात लोकप्रमाण भेद हो जाते हैं। सकलसंयमलब्धि-क्षायोपशमिक सकलसंयमलब्धि सकलसंयमलब्धि तीन प्रकारको है-१क्षायोपशमिक, २ औपशमिक और ३ क्षायिक । जो औपशमिक सम्यक्त्वके साथ क्षायोपशमिक संयमलब्धिको ग्रहण करता है उसका कथन प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्तिका निर्देश करते समय कर आये हैं। जो मिथ्याष्टि, अविरत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीव वेदक सम्यक्त्वके साथ सकल संयमलब्धिको ग्रहण करता है वह प्रारम्भके दो करणपूर्वक उसे ग्रहण करता है । इसके गुणश्रेणि नहीं होती। मात्र संयमकी प्राप्ति होनेपर स्वस्थान गुणश्रेणि नियमसे होती है । जो जीव सकल संयमको प्राप्त होता है उसे सर्व प्रथम अप्रमत्त गुणस्थानकी प्राप्ति होती है। इसका शेष कथन संयमासंयमके समान जान लेना चाहिये । ऐसा नियम है कि कर्मभूमिज और अकर्मभूमिज दोनों प्रकारके मनुष्य सकल संयमलब्धिको प्राप्त करने के अधिकारी हैं। उन्हें ही यहाँ क्रमसे आर्य और म्लेच्छ कहा गया है। अकर्मभूमिज मनुष्य सकल संयमको कैसे प्राप्त होते हैं इसका समाधान उत्तरकालमें टीकाकारोंने इस प्रकार किया है कि चक्रवर्तीकी दिग्विजयके समय जो मनुष्य अकर्मभूमिज क्षेत्रसे आते हैं या अकर्मभूमिज राजाओंकी कन्याओंके साथ विवाह करनेपर जो सन्तान उत्पन्न होती है वे सकलसंयमको ग्रहण करने के अधिकारी होनेसे अकर्मभूमिज मनुष्योंके सकल संयमकी प्राप्ति बन जाती है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि यहाँ जो मिथ्यादष्टि मनुष्यों और तिर्यश्चोंको देशसंयमकी प्राप्तिका और मिथ्यादृष्टि मनुष्योंको सकल संयमकी प्राप्तिका उल्लेख किया है सो उसका आशय यह है कि जिन मिथ्यादृष्टि मनुष्यों और तिर्यञ्चोंने आचार शास्त्रके अनुसार निर्दोष रीतिसे श्रावकाचारका और मिथ्यादृष्टि मनुष्योंने अनगाराचारका पालन करते हुए तत्त्वाभ्यासपूर्वक आत्मसन्मुख होकर तीन करण करके सम्यग्दर्शनके साथ भाव संयमसंयम और भावसंयमको प्राप्त किया है या वेदक सम्यक्त्वके साथ उक्त विधिसे भावसंयमासंयम और भावसंयमको प्राप्त किया है उन्हें लक्ष्य कर ही उक्त निर्देश किया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy