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[ ८ ] इस प्रकार क्रमसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करनेके बाद यह जीव अन्तर्मुहूर्त काल तक विश्राम करके तदनन्तर त्रिकरण विधिसे दर्शनमोहनीयकी तीनों प्रकृतियोंकी क्षपणा करता हुआ अनिवृत्तिकरणमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृतिका क्रमसे नाश करता है । इस विधिसे इनका नाश करते हुए दूरापकृष्टिसंज्ञक स्थितिसत्त्वके शेष रहने के बाद भी, जब हजारों स्थितिकाण्ड कघात हो लेते हैं तब सम्यक्त्वमोहनीयके असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा करता है। यहाँसे भागहार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है, असंख्यात लोकप्रमाण नहीं। इस विधिसे दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करते हए मिथ्यात्वकी उच्छिष्टावलिप्रमाण स्थिति शेष रहती है। पुनः सम्यग्मिथ्यात्वके संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंका घात होते समय अन्तिम स्थितिकाण्डकका पतन होने पर जब उच्छिष्टावलि प्रमाण स्थिति शेष रहती है उस समय सम्यक्त्वका स्थितिसत्त्व आठ वर्ष प्रमाण शेष रहता है । यहाँसे लेकर अवस्थित गुणश्रेणिका नया क्रम चालू हो जाता है, स्थितिकाण्डकका प्रमाण अन्तर्मुहुर्त आयामवाला होता है। तथा अनुभागका प्रत्येक समयमें अपवर्तन होने लगता है। इस विधिसे जब अन्तिम काण्डकको अन्तिम फालिका पतन होता है तब वहाँसे लेकर इसकी कृतकृत्यवेदक संज्ञा हो जाती है।
इसका मरण भी हो सकता है । यदि प्रथम अन्तर्मुहर्तमें मरण होता है तो वह मरकर नियमसे देव होता है। यदि दूसरे अन्तर्मुहूर्तमें मरण होता है तो नियमसे देव या मनुष्य कोई एक होता है। यदि तीसरे अन्तर्महर्त में मरण होता है तो देव, मनुष्य और तिर्यञ्चमेंसे कोई एक होता है और यदि चौथे अन्तर्मुहर्त में मरण होता है तो चारों गतियों में से किसी एक गतिमें जन्म लेता है । क्षायिक सम्यग्दर्शनका प्रारम्भ करनेवाला जीव जबतक कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि नहीं होता तब तक उसके जो लेश्या होती है वही रहती है। उसके अन्तर्मुहुर्त बाद यथासम्भव लेश्यापरिवर्तन हो सकता है । इस सम्बन्धमें जो विशेषता है उसे टीकामें स्पष्ट किया ही है । इस प्रकार कृतकृत्यवेदकका काल पूरा होने पर यह जीव क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है। यहाँ प्रसंगसे अल्पबहत्वका निरूपण किया है सो उसे मूलसे जान लेना चाहिये।
देशचारित्रलब्धि
चारित्र दो प्रकारका है-एक देशचारित्र और दूसरा सकलचारित्र । चढ़ते समय इन्हें प्राप्त करनेके अधिकारी मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों है। जो मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्वके साथ देशचारित्रको प्राप्त करते हैं वे पूर्वोक्त तीनों करणों के होनेपर ही उसे प्राप्त करते हैं । जो वेदकसम्यक्त्वके साथ देशचारित्रको ग्रहण करते हैं वे प्रारम्भके दो करण करके उसे प्राप्त करते हैं। इनके उस समय गुणश्रेणिरचना नहीं होती। किन्तु देशचारित्रके प्राप्त होनेपर अवस्थित गुणश्रेणि प्रारम्भ हो जाती है जो देशचारित्र कालके भीतर सदा प्रवृत्त रहती है। देशचारित्रके दो भेद है-एकान्त वृद्धि देशचारित्र और यथाप्रवृत्त देशचारित्र । इनमें से प्रथमका काल अन्तर्मुहुर्त है । यह देशचारित्रके प्राप्त होने के प्रथम समयसे अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है । इस कालके भीतर समय समय परिणामोंकी विशुद्धि अनन्तगुणी बढ़ती जाती है। इस कारण इस कालके भीतर करण परिणामोंके बिना भी स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात क्रिया चालू रहती है। किन्तु यथाप्रवृत्त देशचारित्रकालके भीतर स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात क्रिया नहीं होती।
जो देशसंयत बाह्य कारणके बिना केवल अन्तरंग कारणके वश तीव्र संक्लेशको प्राप्त हो अन्तमहर्तके लिए असंयतसम्यग्दृष्टि होकर पुनः देशचारित्र को प्राप्त करता है उसके करणपरिणाम न होनेसे वह स्थितिअनुभागकाण्डकघात नहीं करता। उक्त देशसंयत जीव कभी संक्लेशको प्राप्त होता है और कभी
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