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उपशमकरण क्रिया के साथ प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति के समय उपयोग, योग और लेश्याका विचार करते हुए बतलाया है कि दर्शनमोहके उपशमका प्रारम्भ करनेवाला अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्तकाल तक स्थापक कहलाता है । उस समय इसके नियमसे ज्ञानोपयोग ही होता है, किन्तु इसके बाद मध्य अवस्थामे और समाप्त करनेके समय साकार वा अनाकार कोई भी उपयोग हो सकता है। योगका विचार करते हुए मनोयोग, वचनयोग और काययोगमेंसे किसी एकको ग्रहण किया गया है तथा लेश्याका विचार करते हुए लब्धिसार संस्कृत टीकामें तो इतना ही बताया है कि तियंच और मनुष्य मन्दविशुद्धिवाला होता है तथापि पीतलेश्याके जघन्य अंश में विद्यमान होकर ही प्रथमोपशमका प्रारम्भ करनेवाला होता है। इस प्रकार लब्धिसारकी संस्कृत टीकामें जहाँ यह नियम किया गया है कि तिच और मनुष्य प्रथमोपशम सम्यक्त्वका प्रारम्भ पीतलेश्याके जघन्य अंशमें ही करता है वहीं जयधवला में 'जहण्णए तेउलेस्साए ' पदका यह स्पष्टीकरण किया गया है कि तियंच और मनुष्य यदि अति मन्द विशुद्धिवाला हो तो भी उसके कमसे कम जघन्य पीतलेश्या ही होगी, इससे नीचेकी अशुभ लेश्या नहीं होगी। तात्पर्य यह है कि प्रथमोपशम सम्पवश्वका प्रारम्भ करनेवाले तिथंच और मनुष्य के कृष्ण, नील और कापोत लेश्या नहीं होती ।
जिस जीवने प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त किया है उसके दर्शनमोहनीयसम्बन्धी तीनों प्रकृतियाँ अन्तर्मुहूर्त कालतक सर्वोपशमरूप अवस्थाको प्राप्त रहती हैं अर्थात् प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन चारों प्रकारसे वे उपशान्त रहती हैं। हाँ अन्तर्मुहूर्त कालके बाद यदि मिथ्यात्व प्रकृतिको उदीरणा होती है तो उक्त जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है और यदि सम्यक् प्रकृति की उदीरणा होती है तो उक्त जीव वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाता है ।
इस प्रकार प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति कैसे होती है इसका विचार किया।
क्षायिक सम्यक्त्व
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जो वेदकसम्यग्दृष्टि कर्मभूमिज मनुष्य तीर्थंकर केवली, सामान्य केवली और श्रुतकेबलीके पादमूलमे अवस्थित है वही दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रस्थापक होता है अर्थात् मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व के द्रव्यको अन्तर्मुहूर्त कालतक सम्यक्त्व प्रकृतिमें संक्रमित करता है। तब उक्त जीवकी प्रस्थापक संज्ञा होती है यह उक्त कथनका तात्पर्व है। किन्तु दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका निष्ठापक यथासम्भव चारों गतियोंका जीव होता हैं विशेष इतना है कि दर्शनमोहनीयकी शपणा करनेवाला उक्त जीव सर्वप्रथम त्रिकरणविधिसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उदयावलिके बाहर स्थित स्थितिकी विसंयोजना करता है। जब यह जीव अनिवृत्तिकरणमे प्रवेश करता है तब अनन्तानुबन्धी चतुष्कके स्थितिसवको अपेक्षा चार पर्व होते हैं । प्रारम्भ लक्षयत्वसागरोपम प्रमाण स्थिति सत्व दोष रहता है। पुनः क्रमसे घटकर एक सागरोपम प्रमाण स्थितिसत्त्व शेष रहता है। इसके बाद पुनः घटकर दूरापकृष्टि संज्ञाप्रमाण स्थितिसत्त्व शेष रहता है । पुनः अन्तमें उच्छिष्टावलिप्रमाण स्थितिसत्त्व शेष रहता है । यहाँ जब तक सागरोपमप्रमाण स्थितिसत्त्व नहीं प्राप्त होता तब तक स्थितिकाण्डकायाम पत्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण होता है। उसके बाद दूरापकृष्टसंज्ञक स्थितिसत्त्व के प्राप्त होने तक स्थितिकाण्डकायाम पत्योपमके संख्यात बहुभागप्रमाण होता है पुनः इसके बाद उच्छिष्टावल प्राप्त होने तक काण्डकायाम पत्योपमके असंख्यात बहुभागप्रमाण होता है।
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